Friday 14 March 2014

यहां तो सब मुस्कुरा कर मिलते हैं पर बताते नहीं कि क्यों मुस्कुरा रहे हैं

कृष्ण चन्द्र  हलवाई जिन्हें भाषा की देसज रूप का नुकसान उठाना पड़ता था यह सुन कर की 'क्री चंद' आए हैं. हां याद आया मुझे वे  ही तो थे जो ठेला ले कर आते थे मोहल्ले के भीतर जिसमे गोलगप्पे /टिकिया हुआ करती थी . और वो इमली  /कैथा  /मकोई और बेर  बेचने वाले नूर जिन्हें मोहल्ले के बीस बसंत पार किए हुए लोग अबे बेहना और उनके चिढ़ जाने के बाद मामा कह कर बुलाते थे. लाला जी पुस्तक भण्डार और मन्नू पुस्तक भण्डार में गजब की प्रतिस्पर्धा थी. तब एक रुपए की कापी मिला करती थी जिस पर मैं और मेरे जैसे बच्चे टेस्ट दिया करते थे. कापी की  जिल्द भी भीतर के पन्ने के जैसी  पतली  होती थी  पर नाम था कापी और पेज होते थे बीस. पेन्सिल ,जिसके एक इंच के हो जाने तक  उसे छोड़ते नहीं थे ,पूरी तरह से खत्म करने के लिए पेन्सिल के दोनों तरफ नोक बना लिया करते थे. पेन्सिल कटर से ज्यादा अच्छी नोक छंगू नाई की दूकान से इस्तेमाल हुआ ब्लेड कर जाता था ,कभी कभी पेन्सिल कुरेदते वक्त ऊँगली से चमड़ा भी निकलता और खून भी. अशरफ बताता था की खून बहने नहीं देना ,जहाँ का हिस्सा कट गया हो उसको मुंह में भर लो ,खून वापस पेट में चला जाएगा और खून की कमी नहीं होगी। हाथ की ऊँगली में लगती चोट तो वो हिस्सा मुंह में समा जाता ताकि खून बचा रहे लेकिन कमबख्त पैर और पीठ पर लगी रगड़ और छीलन कैसे मुंह में समाए ,यही यक्ष प्रश्न सताए।
आज़ादी की पचासवी वर्षगांठ पूरे देश में धूम धाम से मनाई जा रही थी. सफ़ेद हाफ पेंट और तिरंगे वाली टोपी ,जिसका रबर अधिक जोर देने से टूट गया था को पतंग उड़ाने वाले मांझे से बांध लिए थे. सीना चौड़ा था पर छप्पन नहीं था लेकिन जोश ओ जूनून किसी छप्पन इंच वाले से कम भी नहीं थे. ये देश मेरा ,इंक़लाब का नारा, मेरा रंग दे बसंती चोला जैसे गाने को सुन कर बुद्धि भले न खुल पाती हो पर जाने क्यों हाथों के रोयें खड़े हो जाते थे. राष्ट्रवाद था यह या फिर देशद्रोह तब कहाँ पता था. लड्डू के लिए पांच रुपए जमा करवाए गए थे पर दी जलेबी गयी थी ,वादा खिलाफी करने में स्कूल वाले किसी नेता से कम नहीं उतरते थे ,आज क्या माहौल है नहीं पता. पर फहद कभी कभी कहता ज़रूर है मुझे कि पिछली बार उससे कहीं घुमाने ले जाने के लिए फीस ली गई थी और घुमाया संगम गया. उसने कहा भाई ,मैं तो संगम जा चुका हूं फिर क्यों ले गए. उसके साथ चीटिंग हुई या नहीं यह भी बड़ा सवाल है ,शायद उतना जितना आज के दौर में बनारस और लखनऊ की सीट से कौन लड़ेगा का सवाल। पूरा देश अपना सब कुछ भुला कर बस यही जानना चाहता है की जोशी लड़ेंगे या फिर मोदी। मोदी को बनारस से लड़वाने वालों को लगता है उनका वोटर कार्ड बनारस का बना है और वे उसे जीता देंगे एवं मोदी को हरवाने वालों को भी कुछ ऐसा ही लगता है।  मेरे हिसाब से मुझे लड़ जाना चाहिए क्योंकि मैं देशभक्त हूं ,बचपन से ही।  मैं जीत भी जाऊँगा क्योंकि सारे दलों से बुजुर्गों की छटनी हो रही है ,नौजवान आ रहे हैं।  कांग्रेस ने अब तक दिए गए टिकट में एक तिहाई युवाओं को दिया है.
मलावा बुजुर्ग गाँव से एक कबाड़ी आता था ,उसका नाम भूल रहा हूं ,कोई बचपन का दोस्त अगर इसे पढ़ रहा हो तो उसका नाम ज़रूर याद दिला दे.  वो हर पुरानी चीज़ के बदले दालपट्टी और चूरन दिया करता था. सब बच्चे उसका इंतज़ार करते थे. उसने बच्चों को खूब चूरन बनाया क्योंकि एक बार मैंने भी उसे अपने घर की पुरानी ओखली प्रदान कर दी थी. उसने उसके लिए मुझे जो दिया उसको मैंने बांट कर खा लिया था. बाद में ओखली की खोज होने लगी ,शायद पांच या आठ किलो के ऊपर की थी ,काफी पुरानी थी। घर से मोहल्ले में बर्तन जाया करता था जब शादी ब्याह होती किसी की,मुझे लगा किसी को पता नहीं चलेगा ,इतना सारा सामान तो है ही ।  मैं चूंकि घर में चचेरे भाइयों बहनों को मिला कर 19 वे नंबर पर आता था और निहायत ही शरीफ था को सबसे पहले बुलाया जाता है,अन्याय था यह ,सबको छोड़ कर पहला नंबर मेरा आता है।  मेरे लाख इंकार के बावजूद जैसे सबको यह यकीन था की कांड मैंने ही किया है. उस वक्त मेरा गैंग काफी बड़ा हुआ करता था ,सबको पकड़ा जाता है. लेकिन टूटता कोई नहीं सिवाए फुटून नाऊ के. उसने बता दिया की ओखली कबाड़ी के हाथो बिक चुकी है महज दालपट्टी के लिए. फुटून को घर वालों से जो इनाम मिला हो सो मिला हो पर सज़ा मुझे मिली। बाद में उसको बारी बारी से हम सब कछार में इनाम देते हैं.
पतंग की खातिर अगर जान बाजी पर लगानी पड़े तो वह मामूली सी बात थी ,एक मर्तबा कटी हुई पतंग के पीछे भागते हुए ट्यूबवेल के लिए बने गड्ढे में समा गए ,मिटटी डाल कर किसी बेहुदे और गैर ज़िम्मेदार नागरिक ने उसे यूँही छोड़ रखा था. गर्दन तक जा चुके थे ,बस मुंह और नाक जाने ही वाली थी की लोगों ने बचा लिया। खुद से बचे होते तो 'ब्रेवरी अवार्ड' ज़रूर मिलता या फिर आज गया होता तो प्रिंस की तरह फौजी आते और सारे न्यूज़ चैनल ,अखबार वाले भी.  हो सकता है इंडिया गाट टैलेंट में  मुझे बुलाया जाता  और फिर से वैसा ही परफार्म करने के लिए कहा जाता।
समय जाता रहा ,हमें बताया गया है की वक्त किसी के लिए नहीं रुकता, जाने क्यों नहीं रुकता ,इतना सब तो डेवलेपमेंट हो गया है।  जाना पड़ेगा समय को पीछे ,वो दुनिया बहुत हसीन  थी , वो सारे यार दोस्त भी ईमानदार थे जो छोटी छोटी बात में जी जान से जुड़े रहते थे. दोस्त कौन था और कौन दुश्मन उसकी पहचान हो जाती थी. यहां तो सब मुस्कुरा कर मिलते हैं. पर बताते नहीं की क्यों मुस्कुरा रहे हैं. हम नाराज़ होते थे तो अपनी साइकिल पर किसी को बिठाते नहीं थे और न तो अपने चबूतरे पर चढ़ने देते थे.

9 comments:

  1. वो दुनिया बहुत हसीन थी , वो सारे यार दोस्त भी ईमानदार थे जो छोटी छोटी बात में जी जान से जुड़े रहते थे. दोस्त कौन था और कौन दुश्मन उसकी पहचान हो जाती थी. यहां तो सब मुस्कुरा कर मिलते हैं. पर बताते नहीं की क्यों मुस्कुरा रहे हैं. हम नाराज़ होते थे तो अपनी साइकिल पर किसी को बिठाते नहीं थे और न तो अपने चबूतरे पर चढ़ने देते थे.

    अनस भाई, पहले रिश्ते मुहब्बत के लिेए होेेते थे और चीज़ें इस्तेमाल के लिए...अब चीज़ें मुहब्बत के लिए होती हैं और रिश्ते इस्तेमाल के लिए...

    जय हिंद...

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  2. पहले के रिश्ते दिल से होते थे| छोटकी चुंगलिया से खुट्टी होई जात रही धमकी के साथ कि तुमरे अब्बू से कह देबे वरना अभिन ई बल्ला दईदो हमका, बहुत ही अच्छी कृत हैं हज़रत अनस साहब दामाद बरकातुहु

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  3. Bhai....kadak haann......choo gya...

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  4. Bhai kadak haan.....choo gya...ekdumm

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  5. yadon ki buniyad se sab yadein nikal lae ho... kuchh bachpan nikal lae ho :)

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  6. पूरा लेख शानदार था, मगर इन कलिमात मे एक दर्द छुपा है

    "ये देश मेरा ,इंक़लाब का नारा, मेरा रंग दे बसंती चोला जैसे गाने को सुन कर बुद्धि भले न खुल पाती हो पर जाने क्यों हाथों के रोयें खड़े हो जाते थे. राष्ट्रवाद था यह या फिर देशद्रोह तब कहाँ पता था.,"

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  7. अनस भाई आपके इस ब्लॉग को पढ़ कर कुछ पुराने पल ताज़ा हो गए... आपको आपके मोहल्ले में आने वाले बुज़ुर्ग कबाड़ी ने पट्टी खिलाई तो हमें शमीम भाई ने समोस...मुझे आज भी याद है मोहल्ले में शमीम भाई समोसे का ठेला लेकर आते रोज़ शाम को उनके आना का इंतज़ार मोहल्ले के हर बच्चे को रहता वो अपना ठेला पर राखी हुई कढाई को समोसा तलने वाले कलछुल से बजाते हुए मोहल्ले के अंदर आते और हम सब बच्चे दौड़ कर समोसा खरीदने चले जाते उस 50 paise के एक समोसे में इतना जायका होता जैसे की इस दुनिया में वो आखिरी सबसे लज़ीज़ चीज़ हो और हर शाम यही नियम रहता हम सब बच्चो का और हाँ उस वक़्त मेरी उम्र कुछ 6 या 7 साल थी एक शाम हमने जैसे ही उनके कढाई की आवाज़ सुनी किताब कॉपी बंद करके चाट की तरफ दौड़ लगा कर झांके के देखा तो शमीम भाई अपने समोसे के ठेले को लिया मोहल्ले में घुस रहे थे फिर हमने किताब वहीँ पटकी और डैडी के पास दौड़ कर गए उनसे paise मांगे पर ना जाने क्यों आज डैडी ने हमे paise देने से मन कर दिया अब हम बेचारे करते तो क्या करते समोसे का ठेला नजदीक अत जा रहा था और कढाई की आवाज़ हमारे कानो में बहुत तेज़ तेज़ सुने दे रही थी ऐसा लग रहा था मनो समोसे का ठेला उस पर रख्खी कधी उसपर जोर जोर से पटखा जा रहा कलछुल और कढाई में पड़ा समोसा सब हमको बुला रहे है फिर अच्चानक याद आया अरे मरियम paise तो mumma क पास भी होते है सोचा उनसे मांग लेते हैं फिर सोचा अगर उन्होंने भी नहीं दिया तो पर समोसा भी खाना ज़रूरी है आखिर दुनिया की आखिरी लज़ीज़ चीज़ क हाथ से कैसे जाने दे सकते थे इसलिए इधेर उधर देखने के बाद सन=बसे बचते बचाते हमने mumma के पर्स से एक 50 का नोट निकाल ही लिया और पहुच गए शमीम भाई के ठेले पर समोसा खाने समोसा देख कर ख़ुशी का ठिकाना नहीं था और तो और सहायद आज शमीम भाई कुछ ज़यादा ही कुश थे हमसे रोज़ एक ही समोसा देते थे पर आज उन्होंने दो समोसे और खूब साड़ी हरी धनिया की चटनी भी दाल कर दी थी उस एक पचास की नोट के बदले दोनों समोसे सफा चाट करके जब हम घर वापिस ए तो शायद भाईजान ने हमे बहार समोसा खाते देख लिया था घर में घुसते ही उन्होंने दरवाज़े पर ही रोक लिया और पूछने लगे की समोसा कहाँ से लिया बीटा पहले तो हमने अना कानी करने की कोशिश की पर बाद में सच कुबूल न पड़ा अल्लाह कसम इतनी पिटाई हुई उस दिन से आज के दिन तक 50 की नोट से बहुत दर लगता है पर अल्लाह जन्नत नसीब करे हमारी दादी अम्मी को जिन्होंने हमे बच्चा लिया वरना शायद उस दिन हमको जन्नत नसीब हो चुकी होती

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  8. अनस भाई आपके इस ब्लॉग को पढ़ कर कुछ पुराने पल ताज़ा हो गए... आपको आपके मोहल्ले में आने वाले बुज़ुर्ग कबाड़ी ने पट्टी खिलाई तो हमें शमीम भाई ने समोस...मुझे आज भी याद है मोहल्ले में शमीम भाई समोसे का ठेला लेकर आते रोज़ शाम को उनके आना का इंतज़ार मोहल्ले के हर बच्चे को रहता वो अपना ठेला पर राखी हुई कढाई को समोसा तलने वाले कलछुल से बजाते हुए मोहल्ले के अंदर आते और हम सब बच्चे दौड़ कर समोसा खरीदने चले जाते उस 50 paise के एक समोसे में इतना जायका होता जैसे की इस दुनिया में वो आखिरी सबसे लज़ीज़ चीज़ हो और हर शाम यही नियम रहता हम सब बच्चो का और हाँ उस वक़्त मेरी उम्र कुछ 6 या 7 साल थी एक शाम हमने जैसे ही उनके कढाई की आवाज़ सुनी किताब कॉपी बंद करके चाट की तरफ दौड़ लगा कर झांके के देखा तो शमीम भाई अपने समोसे के ठेले को लिया मोहल्ले में घुस रहे थे फिर हमने किताब वहीँ पटकी और डैडी के पास दौड़ कर गए उनसे paise मांगे पर ना जाने क्यों आज डैडी ने हमे paise देने से मन कर दिया अब हम बेचारे करते तो क्या करते समोसे का ठेला नजदीक अत जा रहा था और कढाई की आवाज़ हमारे कानो में बहुत तेज़ तेज़ सुने दे रही थी ऐसा लग रहा था मनो समोसे का ठेला उस पर रख्खी कधी उसपर जोर जोर से पटखा जा रहा कलछुल और कढाई में पड़ा समोसा सब हमको बुला रहे है फिर अच्चानक याद आया अरे मरियम paise तो mumma क पास भी होते है सोचा उनसे मांग लेते हैं फिर सोचा अगर उन्होंने भी नहीं दिया तो पर समोसा भी खाना ज़रूरी है आखिर दुनिया की आखिरी लज़ीज़ चीज़ क हाथ से कैसे जाने दे सकते थे इसलिए इधेर उधर देखने के बाद सन=बसे बचते बचाते हमने mumma के पर्स से एक 50 का नोट निकाल ही लिया और पहुच गए शमीम भाई के ठेले पर समोसा खाने समोसा देख कर ख़ुशी का ठिकाना नहीं था और तो और सहायद आज शमीम भाई कुछ ज़यादा ही कुश थे हमसे रोज़ एक ही समोसा देते थे पर आज उन्होंने दो समोसे और खूब साड़ी हरी धनिया की चटनी भी दाल कर दी थी उस एक पचास की नोट के बदले दोनों समोसे सफा चाट करके जब हम घर वापिस ए तो शायद भाईजान ने हमे बहार समोसा खाते देख लिया था घर में घुसते ही उन्होंने दरवाज़े पर ही रोक लिया और पूछने लगे की समोसा कहाँ से लिया बीटा पहले तो हमने अना कानी करने की कोशिश की पर बाद में सच कुबूल न पड़ा अल्लाह कसम इतनी पिटाई हुई उस दिन से आज के दिन तक 50 की नोट से बहुत दर लगता है पर अल्लाह जन्नत नसीब करे हमारी दादी अम्मी को जिन्होंने हमे बच्चा लिया वरना शायद उस दिन हमको जन्नत नसीब हो चुकी होती

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  9. खुशदीप जी के कहने पर आपने मिलने चले आए मुस्कुराते हुए। मुस्कुराते हुए ही आपकी पिटाई का आनंद भी ले लिया...पत्तों पर दौड़ने की यादें भी ताजा कर लीं...साइकिल से धीरे मार खाकर भागते घोड़े या घोड़ी की याद भी कर ली...ये भी मुस्कुराते हुए...चोरी के पैसे से चटपटी चाट से लेकर समोसे तक याद कर लिए ..सब मुस्कुराते हुए...दुनिया का पता नहीं ..हम तो इसलिए मुस्कुराते हैं क्योंकि रोते हुए पैदा हुए थे...अमिताभ अंकल की बात मानते हुए सोचते हैं कि मुस्कुराते हुए जाएंगे ..तो कम से कम जाने के बाद ही सही..दुनिया मुकद्दर का सिकंदर तो कहेगी ना। तो मुस्कुराते हुए विदा लेता हूं..फिर आने के लिए

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