जब छोटा था तो सबसे ज्यादा घबराहट जिस चीज़ से होती थी वह थी स्कूल जा कर आठ घंटे एक ही बेंच पर ,एक ही कमरे में ,एक ही ब्लैकबोर्ड को देखना . पांच साल का हो गया तो सजा धजा ,काजल पाउडर और सर में पचास ग्राम तेल चपोड़ घर में काम करने वाले दस्सू चच्चा इलाहबाद मांटेसरी स्कूल छोड़ आते ।पढ़ता कम और रोता ज्यादा था इसलिए क्लास से बाहर निकाल प्ले ग्राउंड भेज दिया जाता ।लेकिन स्कूल के टीचर जल्दी ही समझ गए की लड़का पहुंचा हुआ है ,रोज़ रोज़ का नाटक है इसका न पढ़ने का । फिर भई लाख रो लूं ,नाक बहा लूं पर निर्दयी प्रिंसिपल सैयदा ज़िया को मुझ पर दया न आती ।अब तो किसमी बार चाकलेट भी न मिलती । इतना अत्याचार सहने की हिम्मत न हुई तो हमने एक ही महीने में स्कूल जाना बंद कर दिया ।घर में दादाजान की चलती थी ।उनसे हमारा यह हाल देखा न जा रहा था ,अब्बू की चलती तो उसी स्कूल में दफ्न करवा देते । खैर फिर घर से थोड़ी दूर पर मदरसा था जो की सुबह छह बजे फजिर की नमाज़ के बाद खुल जाता ।अल्लाह कसम ,जाने कैसे मौलवी थे ,इत्ती सुबह उठ जाते थे ।छह से नौ बजे तक जो कमर तोड़ाई होती की हमारी रूह काँप जाती ,मेरे सामने मौलवी साब जमीन पर लोथार लोथार के मारते ।अपने सामने उन फरारी काटे बच्चों को देखता जिन्हें चार आठ लड़के लाद कर लाते और फिर ऐसी तोड़ाई होती की हम भागने की सोच न पाते ।इन हालात में मांटेसरी की मैडम और क्यूट क्यूट सी लड़कियां याद आती और जब उनके ख्याल में डूबा आस पास नज़र फेरता तो सलवार कमीज और अपनी लम्बाई से चार गुना लंबा दुपट्टा लपेटे नाक बहाती लड़कियों की सिसकियाँ ।खौफ का जो मंज़र तारी होता वहां उसमे सुकून चैन इश्क़ सब लुट जाता ।मैं हिज्जे लगा कर अलिफ़ बे पढ़ रहा था ,इसलिए ज्यादा भार रहता नहीं था सबक याद करने का ।पहले ही पन्ने में पन्द्रह दिन गुजर गए फिर कहीं जा कर दूसरे तरफ क्या लिखा है जान पाया । मदरसे से निकलता तो फूफी के लड़के मकसूद खान ,जावेद और बड़े अब्बू के लड़के रिज़वान और छोटी फूफीजान सायरा के साथ संकीर्तन आश्रम जाता ।वहां दस बजे से शाम के चार बजे तक संस्कृत /हिंदी की पढ़ाई होती,पर हम चारों को शुरू के तीन घंटे की इजाज़त मिली थी जिसमे हिंदी और थोड़ी बहुत संस्कृत पढ़ा देते थे ।मदरसे से हिसाब (गणित) और टूटी फूटी अंग्रेजी के साथ अरबी (बिना समझ वाली) उर्दू को समेटे हुए ,एक साथ से खिसकते पैजामे को संभाले तो दूजे हाथ की आस्तीन से आँखों से बहते आँसू को पोछते हुए बस आस पास के लोगों से यही इल्तिजा करता की हाय कोई तो रोक लो इस अत्याचार को । खैर पाठशाला में घुसने से पहले सर से जालीदार टोपी जेब में रखने की हिदायत मकसूद भाई देते और कहते की टिफिन में कबाब या कीमा हो तो दुपहर के खाने में ढक्कन न खोलना ,यहाँ खाना मना है । हम सब भीतर जाते आंवले के पेड़ के तले ‘स्वच्छ जल’ की टंकी से प्यास बुझाते फिर खुले से चटियल मैदान में बिछी टाट पट्टी पर बैठ जाते । सबसे पहले प्रार्थना होती ,हिन्दू बच्चे हाथ जोड़ते और हम सब हाथ बाँध के खड़े रहते ,सब जोर जोर से दोहराते ।और हमें कहा गया की बस होंठ हिलाना ,बुदबुदाना ,ऐसा लगे की तुम भी वही दोहरा रहे हो ।मकसूद भाई ने कहा था की अल्लाह मियाँ नाराज़ होंगे अगर इन हिन्दुओं की तरह कुछ बोले तो इसलिए उन्होंने हमे सिखाया था ‘अल्लाह तू माफ़ करने वाला है ,इन न समझों को माफ़ कर ,ये तेरी इबादत नहीं किसी और की करते हैं ,और हमें तालीमयाफ्ता बना दे’.। एक बार धीरे धीरे बोलने के चक्कर में मेरे मुंह से ये सब जोर जोर से निकल गया,था तो मैं बच्चा ।मैं कोई मकसूद भाई थोड़ी ना था की जानू अल्लाह कैसे नाराज़ होते हैं और भगवान कैसे प्रसन्न ।आस पास के त्रिपाठी ,तिवारी ,निषाद के बच्चे वैसे ही खार खाए बैठे थे ।मेरे मुंह से अल्लाह माफ़ करे सुन कर गुरु जी से शिकायत कर बैठे । पढ़ाते तो कई सारे लोग थे पर गंगाधर मिसिर उन सबमे बड़े अच्छे थे ,उन्हें उर्दू भी आती थी ।खुशकिस्मती ये की हमारी अल्लाह को याद करने और हिन्दुओं को माफ़ करने वाली शिकायत उन्ही के यहाँ दर्ज होती है ।वे मुस्कुराते हैं और कहते हैं कोई बात नहीं ,इस प्रार्थना में जो अनस करता है उसमे बुराई ही क्या है ।जैसे हम सब अपने अपने पापों की क्षमाप्रार्थना मांगते हैं भगवान से वैसे अनस अपने साथ ही साथ तुम सबकी गलतियों की माफ़ी मांगता है । आचार्य जी द्वारा मेरी दुआ की इस व्याख्या ने ,मेरे बाल मन पर गहरा असर डाला । जिस दुआ को करने के लिए बड़े भाई ने मुझे जासूसों की तरह बना दिया था उसको इतना सहज और सरल तरीके से लेने के कारण आगे से मकसूद भाई की बातों को मैं एक कान से सुनता दूसरे से निकाल देता । उस दिन से मदरसे से फटाफट निकल आश्रम जाने की व्याकुलता में अरबी, उर्दू , हिसाब और अंग्रेजी के सबक मुझे तेजी याद होने लगे । इस तरक्की से मौलाना साब को भी कोफ़्त होती की ये लौंडा बिना मार खाए आखिर कैसे रट लेता है सब कुछ । और इसी उधेड़बन में उनका तगड़ा वाला हाथ बेवजह मेरे ऊपर उठने लगा ,कमर लाल हो जाती ,मैं बिलबिला के चीख उठता ।लेकिन वे उम्र और ताकत दोनों में दस गुना थे और मैं बेचारा । फर्जी की तुड़ाई करने की आदत उस मोटे बिहारी मौलाना में थी ,लुंगी और कुर्ता में कल्लन चिकवा से कहीं कम नहीं बैठता था । इस बीच मेरा मन मदरसे से दूर भागने लगा ।मेरा भी मन फरारी काटने का होता और गंगा किनारे बैठ नदी निहारने का ,पर घर से पढ़ने वाले और भी थे जो ‘घर का भेदी लंका ढाए’ थे । ऐसे में मैंने हिम्मत कि की अब बस बहुत हुआ ,पानी पीने के बहाने जाता तो अगली घंटी के बाद आता ।इस ख्याल से खुश हो जाता की आज मार नहीं पड़ेगी । रोज़ रोज़ मार खाने से बेहतर एक दिन नागा करके मार खाऊं । अगले में मौलाना इदरीस आते थे जो अंग्रेजी और हिसाब पढ़ाते ,वे किसी को एक थप्पड़ नहीं मारते बस डराते और कहते ‘इतना मारूंगा की मर जाओगे ‘ और मर जाने से हम सब डरते थे । फिर लुका छिपी का खेल यूँही चलता रहा इदरीस साहब की मुहब्बत से मैं जमा रहता मदरसे में और उन मौलाना साब की मार पीट के बावजूद उर्दू और अरबी की तालीम हासिल करता रहा ,खैर दो साल तक प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद फिर से उसी मांटेसरी स्कूल में दाखिला हुआ ,अब वहां मन लगने लगा था क्योकि मिस तबस्सुम पे मेरा दिल आ गया था ।
हा हा ,आपने भी पढ़ी थी ? . मुझे लगता था सौ पचास लोग ही पढ़ते हैं ,पर आज पता चला न्यूयार्क में बैठे लोग भी नज़र डालते हैं हम पर :) शुक्रिया .
ReplyDeletePura bachpan hi nikal ke rakh diya janab........ :)
ReplyDeleteabhivayakti perfecto...
ReplyDeleteदो दिन में लगाव हो गया लगता हैं अखबार कि तरह बंधवाना पड़ेगा
ReplyDeleteक्योकि मिस तबस्सुम पे मेरा दिल आ गया था ।
ReplyDeleteआख़िर आपने दो साल जो किया, उसका सबाब तो मिलना ही था...
जय हिंद...
मिस तबस्सुम के इंतजार में हम ;)
ReplyDeleteमिस तब्स्सुम का इंतज़ार है हमें ;)
ReplyDeletepehle padh chuke hain... bdhiya hai,...!!
ReplyDeleteमिस तबास्सुम का क्या हुआ ।
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