कल शाम दफ्तर से निकल कर घर की तरफ जा रहा था. केन्द्रीय सचिवालय से येलो लाइन मेट्रो पर सवार हुआ. पिछले तीन महीने से इस लाइन पर आता और जाता हूं.शायद गिनती के तीन या चार मौके मिले हैं जब मुझे बिना खड़े हुए यात्रा नसीब हुई हो. मेट्रो में सब लोग जल्दी में रहते हैं. कुछ लोग भागते हुए भीतर घुसते हैं तो कुछ लोग उसी तेजी से बाहर। फ्रिस्किंग के दौरान वर्दी वाले भाई साहब भी बहुत जल्दी में होते हैं. वे एक बार कमर के ऊपर तेजी से डिटेक्टर यंत्र को गुजारते हैं. नीचे नहीं जाते। उन्हें पता है की नीचे कुछ नहीं होगा। शायद ही कभी मेरे जूते या पैरों पर से हो कर उनकी हाथ मशीन गुजरी हो. सब लोग बहुत फटाफट वाले अंदाज़ में काम करते हैं. कोई रुकना चाहे तो मेट्रो उसे रुकने नहीं देती। भागना इसकी नियति बन चुकी है. हम भी खुद को उसी के हिसाब से ढाल लेते हैं.
इलाहाबाद में मेरा ननिहाल फूलपुर के फिरोजपुर भरारी गाँव में है. तांगा चलता था. हनुमानगंज से फिरोजपुर के बीच नौ किलोमीटर की दूरी एक घंटे में तय होती थी. घर में पुरानी ओमनी कार थी. 1997 तक झूंसी गाँव के कुछ गुप्ता और अग्रवाल परिवारों में चार पहिया थी. मैं तो हमेशा अकेले ही नानी के घर चला जाता था. दूर तक फैले खेत और बसंत में पेड़ से टूट कर गिरे पत्तों पर दौड़ना दुनिया का सबसे अच्छा काम लगता था. नानी के बाग़ की रखवाली सोहन यादव किया करते थे. उनका घर भी बाग़ के बगल में था.सोहन और सोहन के जैसे बाकी लोग गाँव से बाहर नहीं जाते थे. मैं उनसे पूछता की आप यहाँ रहते हो ,बस कच्चे मकान और खेत हैं. मन कैसे लगता है. क्योंकि मैं वहां हमेशा के लिए रहने नहीं जाता था बस एक दो दिन ही रहता था. बहुत से सवाल मेरे मन में उठते और उनका जवाब सोहन से लेकर गाँव के प्रधान तक के पास न होता।
इक्का की सवारी ही नानी के घर तक पहुंचने का साधन थी. हनुमानगंज में मिनी बस का स्टापेज था. झूंसी से बैठता और वहां उतर जाता। स्टाप पर हलवाई की दूकान थी ,वह दूकान झूंसी के पिंटू केसरवानी के बड़े भाई की थी. पिंटू मेरा दोस्त था. थोड़ी देर वहां रुकता था,पिंटू बिना पैसे के कलाकंद खिलाता। समोसा भी. मैं उसको अपने रुतबे के मकड़जाल में फंसा कर बड़ी बड़ी बाते बताता। पिंटू को मेरे रहते कोई दिक्कत नहीं होनी थी ,उसे ऐसा यकीन दिलाता। यारी दोस्ती और ठेकेदारी की बाते निपटा कर तांगा पकड़ता। घोड़े के ठीक पीछे बैठता ,जहां घोड़े वाला नायलान की पतली रस्सी नुमा डंडे से घोड़े के कमर पर चटका लगाता. घोड़ा रफ़्तार पकड़ लेता। लेकिन घोड़ा अगल बगल से गुजरने वाली साइकिल और जीप से आगे न भाग पाता। पता नहीं उस घोड़े की रफ़्तार ही इतनी थी या फिर घोड़े पर बैठे लोगों को जल्दबाजी नहीं थी. पहुंचना सभी चाहते थे ,और पहुँचते भी थे. घोड़े वाले। ट्रैक्टर वाले। साइकिल वाले।
नानी के घर में मोहन रहता था. वह गाय भैंस वगैरह के चारे का इंतजाम करता था. इस दुनिया में उसका कोई नहीं था. सिवाए मेरे ननिहाल वालों के. दो तीन साल रहने के बाद वह मुसलमान हो जाता है. अब जब वह मुसलमान बन गया तो उसका नाम अब्दुल रखा जाता है. अब्दुल की चाहत थी की उसे हाफ़िज़ बनना है और मस्जिद में इमामत करनी है. उसकी यह बात मान ली जाती है. इलाहाबाद में ही एक जगह है उतरांव,वहां एक बड़ा मदरसा है. उसे वहीँ भेजा जाता है. पढ़ने के बाद वह वापस आ जाता है और मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने लगता है. अब उसे भैंस गाय को चारा देने की ज़रुरत नहीं पड़ती। लेकिन जब तक वह मोहन था तब तक वह मुझे खेत से मटर तोड़ कर देता था. मीठी मटर मुझे पसंद थी. खेत में पुवाल जलाता और उसमे मटर डाल कर भूनता भी था. आलू भी पकाता था और आम भी उसी आग में. वो इमाम बन गया तो मुझे ये सब काम खुद से करने पड़ते थे.
कई सारे लोग थे उस समय जिनकी जिंदगी ,मेरे हिस्से में शामिल थी. सोहन ,पिंटू ,मोहन ,तांगे वाला। समय आगे बढ़ता गया. ये सब दूर चले गए या मैं इनके पास नहीं रहा. बाग़ के आधे हिस्से में हाइवे समा गया तो बाकी का एक हिस्सा हाइवे के उस पार चला गया. इस बार गया था तो सोलह पहिए के ट्रकों ने वहां भी पीछा किया जहाँ बसंत में सिर्फ पत्तों की सरसराहट सुनाई देती थी अब वहां खरगोश और सियार की आवाज़ तक नहीं आती. सब तेजी से बदल गया.
फिर आऊंगा किसी रोज़ तांगे पर सवार हो कर ताकि अपना बीता हुआ कल याद करके कुछ कतरा आंसू टपका सकूं वहां जहाँ सुराही से पानी निकालते वक्त जान बूझ कर पानी छलका देता था.
Ahan! Dost kya likhte ho...khatarnak ekdum :)
ReplyDeleteशुक्रिया अंकिता.
ReplyDeleteवो अकेला ऐसा घर होता था जहां कुछ भी उल्टा करो सब सीधा हो जाता था। उस घर को ही तो नानी का घर कहा जाता है।
ReplyDeleteआपकी ननिहाल से जुड़ी बीती यादें काफी खूबसूरत हैं। ब्लाग पर पहली पोस्ट के लिए मुबारकबाद। कभी वक्त हो तो हमारे ब्लाग में जरूर पधारिए...http://likhtepadhte.blogspot.in/
बहुत बहुत शुक्रिया रिज़वान साहब. ज़रूर तशरीफ लाऊंगा आपकी तरफ .
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ReplyDeletesuperb
ReplyDeleteमैने कहा था न, सौ सुनार की एक लुहार की..
ReplyDeleteभय्ये !! इस डेब्यू के लिए मुबारकबाद :)
और आपका इसे झेलने के लिए शुक्रिया .
Deleteयादों की सड़क पर शानदार लब्जों की सवारी के साथ उतरे हैं आप, शानदार :)
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद साथी ,हौसला अफजाई के लिए .
Deleteनई डायरी के लिए बधाई। अच्छी शुरूआत है। अनस तुम्हें पढ़ना सच बहुत अच्छा लगता है।
ReplyDeleteआपसे सीख रहा हूं .निरंतर .
Deleteएहसास लिखा है बेहद क़रीब से अनस बहुत सारी चीज़ों को एकसाथ पिरोकर भाई!
ReplyDeleteबस यही मुहब्बत कुछ लिखने को प्रेरित करती है मुझे .
DeleteKadva sach :( .
ReplyDeleteयादे जितनी कड़वी हों ,उतनी ही सुनहरी होती है दोस्त .
Deleteमैं वापस आऊंगा,
ReplyDeleteफिर अपने गांव में,
उसी की छांव में,
कि माँ के आँचल से,
गांव की पीपल से,
किसी के काजल से,
किया जो वादा है,
वो निभाऊंगा,
मैं एक दिन आऊंगा...
जय हिंद...
बड़े भाइयों का आशीर्वाद बना रहे. आप लोग बड़े ब्लॉगर हैं . सीखता रहूँगा .
DeleteWah...bohot khoob
ReplyDeleteशुक्रिया .
Deleteफेसबुक पर आपके स्टेट्स अपडेट पढ़कर हमेशा मुझे लगता था कि आपका कोई ब्लॉग होना चाहिए! एक बार मैंने मेसेज में पूछा भी था ना! बहुत बढ़िया लिखते हैं आप!
ReplyDeleteविद्या भूषण अरोरा
जी याद है मुझे. मैं सोच ही रहा था की आप पढेंगे या नहीं .अच्छा लगा यहाँ देख कर के .
DeleteUnda ...Likha hai...Anas Bhai...!!! :)
ReplyDelete(Zia Khan)
आते जाते रहिएगा .हा हा हा
Deleteब्लॉग की दुनिया मे आपकी आमद,मुबारक हो !!
ReplyDeleteशुक्रिया /
Deletewaiting next update.. nice likhe hai bhai
ReplyDeleteज़रूर .
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ReplyDeleteबड़ा अपना सा लगा ये पन्ना,पढ़ते रहना चाहूँगा ये नई डायरी
ReplyDeleteफोन पर बात की थी आपसे की अखबार में भेजा कीजिए ,और आज ही जनसत्ता में दिख गए आप . फिर यहाँ ये शुरुआत ,बस मुहब्बत बनाए रखियेगा .
Deletebhut badhiya bhaiya ...aapp to sidhe hakikat se rubaru kara diye .....
ReplyDeleteमुझे अपने नाना का घर याद आ गया, 15 साल पहले गई थी, कच्ची पक्की यादो मे वहाँ का तालाब और कमल दोनो बसे हैं... खूबसूरत लिखा है आपने
ReplyDeleteKhoobsurat..!
ReplyDeletesmooth and nostalgic.
ReplyDeletenice writing.. the way you remind us our old days is awesome.. keep it up
ReplyDeletebahut hi pyaara likha hai bhai ..
ReplyDeletesahityakar ho gaye bhai lagta hai gyanpeeth ki taraf nazr hai..
ReplyDeletekhoob bahut khoob !! maza aagaya bhai!!
ReplyDeletemere bhi wo bhoolte bhagte kshan kuchh thithak se gaye.. :)
intezar rahega dairy ke next page ka....
Very nice and touchy
ReplyDeleteAnas bhai
ReplyDeleteBahut piche le gaye yaar
Khoobsurat beinteha khoobsurat
Shukriya yaadein zinda karne ke liye