Sunday, 10 January 2016

मालदा के बहाने बैलेंसवादी सेक्युलरों और कथित नास्तिकों को पकड़ा जाए.

मालदा के बहाने तथाकथित नास्तिक और सो काल्ड सेक्यूलर तबके के मुँह पर तमाचा-
हैलो मिस्टर ब्राह्मणवादी सेक्यूलर एंड मिस सेक्यूलराइन,
हाऊ आर यू?
अरे सुनो, सुन लो भाई। मालदा पर आप दोनों ने लेख लिखा था। ख़ूब चर्चा में रहा। प्वाइंट टू प्वाइंट समझाया की मुसलमान क्यों पिछड़ें हैं। क्यों उनका जी घबराता है। क्यों वे बुर्क़े में क़ैद रहना चाहते हैं। क्यों वे चौदह सौ साल पुरानी किताब को अंतिम सच माने बैठे हैं। क्यों वे तीन तलाक़ और हवाला ओह सॉरी हलाला के साथ चुपके से चिपके हुए हैं। क्यों वे पंचर बनाते हैं। क्यों वे टट्टी साफ़ करते हैं। एक ज़रा सा मालदा क्या हुआ आपने तो पूरी जन्म कुंडली खंगाल डाली। इतना मोरली डिप्रेश कर दिया गया कि मुसलमान मुँह छुपाते फिरे।
आपने दो दर्जन गाड़ियों के फूंकने और एक थाना जला देने की कोशिश करने वाली मालदा की दस हज़ार की भीड़ से पूरे मुसलमानों और इस्लाम को तौल दिया। आप उस दिन कहाँ थे जब गुजरात में पटेल, पाँच हज़ार करोड़ की सरकारी और निजी संपत्ति को फूँक कर मीडिया विमर्शों में हीरो की तरह पेश किए जा रहे थे। कहाँ थे सोशल मीडिया के दिग्गज जब पूरे राजस्थान में रेल लाइन ठप करके बैठे जाट हज़ारों ट्रेन रोक करोड़ों का सरकारी नुक़सान कर देते हैं।
क्या पटेल और जाट के बहाने किसी ने हिंदू धर्म, गीता, रामायण, और वेदों को ज़िम्मेदार ठहराया?
क्या किसी ने लिखा की करोड़ों ठेले और खोमचे वाले हिंदुओं की हालात इसलिए ख़राब है क्योंकि जाट और पटेलों ने सरकारी जायदाद को नुक़सान पहुँचाया। 

क्या किसी ने लिखा की भगवान राम और भगवान कृष्ण, माँ सरस्वती चाहती हैं कि हिंदुओं का यह समूह ऐसी हरकतें करे।
क्या किसी ने गुजरात और राजस्थान के विरोध प्रदर्शनों के बाद मीणाओं,जाटों,पटेलों के बहाने देश के नब्बे करोड़ हिंदुओं से हिसाब किताब माँगा ? 

दाढ़ी टोपी वाली तस्वीर शेयर कर दी तो क्या जाटों, मीणाओं और पटेलों के हिंसक प्रदर्शनों के बाद किसी तिलक धारी की तस्वीर क्यों नहीं वायरल की गई। 

अपराध बोध नहीं होना चाहिए। भक्तों के चैनलों ने माहौल बनाया और वही हुआ जो मैं हमेशा लिखता हूँ। वे तथाकथित सेक्यूलर जो बाप का पिंडदान करने के बाद भी नास्तिक बने रहते हैं। वे तथाकथित सेक्यूलर जो गंगा किनारे मुंडन के बाद भी नास्तिक बने रहते हैं। वे तथाकथित सेक्यूलर जो अग्नि के फेरे ले कर भी ब्रह्मा विष्णु और महेश को गरिया देते हैं ताकि दोनों तरफ़ का बैलेंस बराबर रहे। इन बैलेंसवादी तथाकथित सेक्यूलराइन और सेक्यूलरों से बचिए। छद्म नास्तिकों से तो बिल्कुल भी दूर रहिए। इन्हें समाज की नहीं, ख़ुद की फ़िक्र है। ऐसे लोगों को साथ लेकर संघर्ष नहीं होता, अकेले लड़नी पड़ती है लड़ाइयाँ। 

मालदा में जलाई गईं गाड़ियों का डीएनए टेस्ट करके हिंदू पहचान निकाल लेने वाले भयंकर पत्रकार और सौ करोड़ की फिरौती माँगने वाले सुधीर चौधरी से लगायत उन तमाम चैनलों के मालिकान और चर्चा करवाने वाले एंकरों, मुसलमानों का विरोध प्रदर्शन यदि सांप्रदायिक और कट्टरपंथी होता है तो उससे भी ख़तरनाक तरीक़े से प्रदर्शन करने वाले दूसरे लोगों को हीरो क्यों बना दिया जाता है। 

विरोध प्रदर्शन संवैधानिक अधिकार है परन्तुं हिंसा नहीं। लेकिन हिंसा पश्चात उसका विश्लेषण जिस तरह से किया जाता है वह यह बताता है कि सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा की पत्रकारिता हद दर्जे से भी ज़्यादा मुसलमानों से नफ़रत करती है। वे कथित सोशल मीडिया ट्रेंड सेटर्स पूर्वाग्रही हैं जो किसी एक घटना के बाद लगातार उत्पीड़न का शिकार बन रही क़ौम को नोचने लगती है और उनके बराबर खड़ी कर देती है जो उनसे सौ गुना ताक़तवर हैं। वे कथित बुद्धिजीवी ऐसे ही किसी मालदा के इंतज़ार में होते हैं ताकि नीचा और पीछा दिखाने का मौक़ा मिल सके। 

और मैं ऐसा होने नहीं दूँगा। मुसलमान भी बिल्कुल उसी सामाजिक संरचना
 में रचे बसे हैं जिनमें जाट,मीणा,पटेल। मुसलमान भी अपने मुद्दों पर मुखर होते हैं जैसे की कोई दूसरा। हाँ, जो लोग कहते फिर रहे हैं कि जेल में बंद बेक़सूर नौजवानों के लिए मुसलमान क्यों नहीं सड़क पर उतरते तो वे ज़रा गूगल कर लें क्योंकि मीडिया कभी नहीं दिखाएगी कि आज़मगढ़ से पूरी पूरी ट्रेन भर कर जंतर मंतर मुसलमान जाता है। बेक़सूर नौजवानों के लिए जिस रोज़ मुसलमान किसी मालदा जैसी हरकत कर देगा उस दिन आप लोग ही उन बेकसूरों को सबसे पहले गरियाएंगे। 

बुरा लगा हो तो लगता रहे। हमको रत्ती भर भी फ़र्क़ नहीं पड़ता। हम पॉलिटिक्स नहीं करने देंगे आपको वो भी ऐसे मसले पर जहाँ हमारी जान अटकी हो। आपका क्या है। सेमिनार में याद करके दो बूँद आँसू टपका देंगे। साला, झेलना तो हमें पड़ता है। हर मिलने जुलने वाला जब मालदा जैसी किसी घटना पर आपसे पूछ ले कि इस्लाम यही है तो बहुत कुछ राउंड हो जाता है। और मुझे पता है उसका यह सवाल आप जैसे बैलेंसवादी कथित सेक्यूलरों की वजह से बना ह। अगर पहले दिन से ही चढ़ जाते भक्तों पर तो मज़ाल है कोई चैनल चलाता या फिर किसी बेहूदा की हिम्मत होती मालदा के बहाने मुसलमानों को गरियाने की। उन्हें यह महसूस करवाने कि की सब कुछ इस्लाम की वजह से हो रहा है। निकल आओ इस्लाम से बाहर। आओ हुज़ूर आपको, सितारों में ले चलूँ। 

मैं नहीं छोड़ूँगा। आप लिखिए फिर मैं आपके लिखे पर टिप्पणी करूँगा। फिर जनता तय करेगी।
धन्यवाद।

Wednesday, 9 December 2015

अब देखो, मैं हुआ न खुदा.

उसे लगने लगा था, ज़िंदगी माने कुछ भी नहीं. खुदा से जो खौफ था वो भी ख़त्म ही हो गया था. जो बचा खुचा था वह शराब पी कर पूरा कर देता था. शराब और तन्हाई में इस कदर डूबने लगा जैसे दुनिया का सबसे बड़ा जानकार हो. कोई उससे मिलने जाता तो वो उसे बहुत देर तक घूरता रहता. सामने वाला डर जाए,बिल्कुल उस तरह से. आँखें बंद बंद सी. चेहरे पर दाढ़ी. कहीं सुफैद तो कहीं काली. ऐसे ही एक मर्तबा मैं उसके नजदीक चला गया. सवालों के साथ. मुझे पता था उसका जो जवाब हैं उसे सच मान लूंगा तो बिल्कुल उसकी तरह हो जाऊंगा इसलिए मन को मजबूत किया और खुद से कहा, ‘देखो मियाँ,आदमी तो है सच्चा लेकिन इसकी सच्चाई से सिर्फ इसे ही फायदा है. तुम्हें नुकसान. इस लिए झूठ ही समझना. खाली वक्त में इससे बेहतरीन जमूरा नहीं मिलेगा.’मैं खुद से बातें कर ही रहा था की सामने से वो आ गया. मैं उसके बगल से गुजर भी जाता तो उसे ख्याल ही न रहता. खैर, मैंने ही टोका, ‘सलाम वाले कुम चचा.’

न तो मेरा नाम सलाम है न तो चचा,तुमसे कई बार कहा है की मुझे मेरे नाम से बुलाया करो. खुदा नाम है मेरा. आइंदा तुमने मुझे मेरे नाम से नहीं पुकारा तो तुम्हारे किसी भी सवाल का जवाब नहीं दूंगा.लेकिन मैं उस इंसान को खुदा कैसे कह सकता हूं. अजीब कशमकश,अजीब उलझन. कैसा बेहूदा आदमी है. खुद को खुदा कहलवाना चाहता है. क्या सोच रहे हो मियाँ. नाम लेते हो मेरा या मैं जाऊं. हाँ खुदा जी, कहाँ जाएंगे. इसके सिवा ठिकाना ही कहाँ हैं आपका.चलो ,तुमने तस्लीम तो किया कि मैं खुदा हूं. अरे नहीं..मैंने तो सिर्फ नाम लिया है. और नाम रख भर लेने से कोई खुदा थोड़ी न हो जाता है. मतलब जुबान पर खुदा है और दिल में खुदा नहीं. जाओ फिर.. आज से तुमसे मुलाकातें बंद. ओह्हहो, क्या मुसीबत है इस आदमी की. मैंने कहा तो खुदा, अब क्या और कैसे कहूँ.हा हा , छोड़ो ,मैं तुम इंसानों जैसा नहीं हूं. मैं जो हूं वो तुम नहीं मानोगे तो मैं ज़बरदस्ती नहीं करूंगा मानने की. यही तो फर्क है खुदा और इंसान में. अब देखो, मैं हुआ न खुदा. 

Sunday, 4 October 2015

गाय जितनी सीधी सादी ,गौ रक्षक उतने ही खूंख्वार

दादरी के बिसाहड़ा  गाँव में इन्डियन एयरफोर्स में कार्यरत मोहम्मद सरताज के भाई दानिश और पचास वर्षीय पिता मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या करने के लिए दो हजार से ज्यादा लोग मंदिर से हुए उस एलान के बाद आये थे जिसमे कहा गया था की अख़लाक़ की फ्रिज में गाय का मांस है. हजारों की संगठित भीड़ जिसे एक दर्जन लोग लीड कर रहे थे ने गाँव के बीच में अख़लाक़ के घर पर रात में करीबन आठ बजे हमला बोल दिया. दानिश और उसके पिता जान बचाने के लिए घर के उपरी मंजिल पर बने कमरे में भाग गए लेकिन भीड़ ने दरवाज़ा तोड़ कर उन्हें बाहर खींच लिया. इस सबके बीच दानिश की बुजुर्ग दादी की आँख पर चोट की गई और रहम की भीख मांग रही बहन साजिदा की एक न सुनी गई.

अख़लाक़ और दानिश को लोहे की राड,हाकी स्टिक, और घर में पड़ी लोहे की सिलाई मशीन से वार करके मारा गया और जब उनके मर जाने का इत्मीनान हुआ तो भीड़ वहां से निकल कर सड़क पर आई. वारदात पर पहुँचने के लिए पुलिस गाँव आती है तो भीड़ पुलिस पर पथराव शुरू कर देती है. यह सब लगभग दो घंटे तक चलता रहा. पुलिस पर पथराव के अलावा कुछ गाड़ियों को भी जला दिया गया.

दादरी में इस तरह की यह पहली घटना नहीं है. इसके पहले भी बिसाहडा से 18 किलोमीटर दूर कैमराला गाँव में 1 अगस्त 2015 को तीन मुस्लिम युवकों अनस,आरिफ और नाज़िम को गौ तस्करी के आरोप में भीड़ ने हाइवे पर रोक कर पीट पीट कर जान से मार दिया. इस मामले में पुलिस ने तीन लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया था लेकिन गिरफ्तारी आज तक किसी की नहीं हो सकी. गौ तस्करी का आरोप भी झूठा साबित हुआ क्योंकि उनकी गाड़ी में मौके से दो भैंस बरामद हुई थी.

लेकिन बड़ा सवाल यहाँ ये उठता है कि गाय या भैंस की तस्करी हो अथवा उसके मांस का सेवन ,भारतीय दंड संहिता की ऐसी कौन सी धारा है जिसमें यह लिखा गया हो की ऐसा करने वाले लोगों खासकर मुसलमानों को जान से मार देने का हक़ हिन्दुओं को प्राप्त है. दिल्ली,मुंबई समेत हर बड़े होटल के रेस्टोरेंट में बीफ से बना व्यंजन मिल जाता है. हमारा देश बीफ एक्सपोर्ट में दुनिया का सबसे बड़ा देश है. मोदी सरकार ने पशु वध के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाले बड़ी मशीनों पर टैक्स कम कर दिया है. जैसे यूपीए शासन काल में मांस व्यापार को सब्सिडी मिलती थी वैसे ही मोदी सरकार भी सरकारी सहायता प्रदान कर रही है.

गौ हत्या का विषय क्या सच में धर्म और आस्था के प्रश्न से जुड़ा हुआ है, कुछ हद तक यह धार्मिक हिन्दुओं के साथ जुड़ा तो है लेकिन वे हिन्दू इसका राजनीतिकरण करने से बचते रहे हैं. जिन्हें गाय से प्रेम है वे उसका साथ अंत तक नहीं छोड़ते. लेकिन ऐसे हिन्दुओं की संख्या बेहद कम है. मैं जहाँ रहता हूँ वहां विभिन्न जाति के लगभग दस हजार से अधिक हिन्दू रहते हैं लेकिन किसी के भी घर में गाय नहीं है. ज़्यादातर के घरों में कुत्ता मिल जाता है. यादवों के पास गाय से अधिक भैंस मिलती है.

हाल ही में मुझे इस बात का एहसास बहुत करीब से हुआ की गाय अथवा किसी भी जानवर से सच्चे प्रेम का क्या अर्थ है. एक मित्र के नाना नानी की मृत्यु के उपरान्त उनके साथ रहने वाली गाय बेहद अकेली हो गयी जिस कारण से उसकी सेहत तेजी से गिरने लगी. मुश्किल से दो महीने के भीतर वह उठने काबिल भी नहीं रही. हालात यहाँ तक ख़राब हो गए कि मित्र के पिता जी को उस गाय की देखभाल के लिए जाना पड़ा. करीब पांच सौ किलोमीटर दूर जा कर उन्होंने गाय की रात दिन सेवा की. एक समय ऐसा भी आया की गाय के बैठी रहने की वजह से उसके चमड़े तक घिस गए. मैंने सुझाव दिया की उसे जहर का इंजेक्शन दे कर इस दर्द से मुक्त कर दीजिए,लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया. 

यह तो हुई  गाय से जुड़ी धार्मिकता और लगाव ,जो बहुत कम देखी जाती है. लेकिन गाय को राजनीतिक पशु बनाने के पीछे जो लोग कार्यरत हैं वे हैं गौ रक्षा के नाम पर हाइवे पर रात में बीफ एक्सपोर्ट की गाड़ियों पर हमला करने वाले , सरेआम गाय को लेकर बयानबाजी करने वाले और सुरक्षा की आड़ में कसाई को बेचने वाले.
उत्तर प्रदेश से वर्तमान में एक लोकसभा सांसद चुन कर गए हैं. कई वरिष्ठ पुलिसकर्मी और अधिकारियों एवं पत्रकारों तथा आम जनता के बीच यह चर्चा आम है की वे गौ रक्षा के नाम पर पशु तश्करों से पैसा ले कर पहले विधायक बने और अब सासंद.

गाय का राजनीतिकरण आम भारतियों के लिए कभी सुखद नहीं रहा. मंगल पाण्डेय के साथ एक मिथक जोड़ दिया गया की उनके कारतूस में गाय की चर्बी मिली होती थी जिससे नाराज़ हो कर उन्होंने विद्रोह कर दिया. यह गाय को अतिमहत्वपूर्ण और धार्मिक पवित्रतता दिलाने का सबसे पहला प्रयास था इसके बाद धीरे धीरे आज़ाद हिन्दुस्तान में बहुसंख्यक हिन्दू समाज की भावुकता इससे जोड़ी गई. यह काम बाकायदा हर राजनीतिक दल ने किया लेकिन बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने के बाद मुद्दों के आभाव में भाजपा और आर एस एस ने हिंदी भाषी राज्यों में गौ रक्षा के नाम पर बेहद खतरनाक रणनीति पर काम किया जिसका नतीजा है दादरी.
दादरी के दंश पर देश के मुखिया की चुप्पी और उनके ही पार्टी के विधायक एवं मंत्रियों द्वारा खुलेआम हत्यारों का पक्ष लेना भाजपा की उस रणनीति की पोल खोलता है जिसमें वह ‘पिंक रिवोल्यूशन’ पर विरोध भी दर्ज करवाती है और उसी ‘पिंक रिवोल्यूशन’ को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी प्रदान करती है. शासक वर्ग धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल मात्र वोट पाने के लिए करते हैं,उनमें हिन्दू हित वाली भाजपा सबसे आगे है. मांसाहार पर रोक थाम की हर संभावित पहल भाजपा अपने राज्यों में कर रही है लेकिन वह विदेशों में मांस निर्यात पर रोक लगाने के बजाये उसे मदद कर रही है. आम हिन्दुओं के बीच यदि कुछ लोग इन बातों को पहुंचा सकें तो शायद समझ बदले और कुछ अच्छा नतीजा सामने आये वरना गाय पर सियासत होगी और उसकी चपेट में दोनों ओर से लोग ही आएंगे,नेता नहीं.


Monday, 23 February 2015

ऑकलैंड रोड की ख़ामोशी काश बनावटी होती

मैं किसी पुराने अंग्रेज बंगले की सफ़ेद चूने से पुती दिवार जैसा महसूस कर रहा हूँ जिसने अपने अतीत के वैभव और यश को खूब जिया और आज उन दीवारों से जब सीलन और पपड़ी छूटने लगी थी भरभरा कर गिर जाती है. ऐसे तमाम बंगले और ऐतहासिक धरोहरों के स्वर्णिम इतिहास का भविष्य इतना खोखला क्यों हो जाता है. जिन लोगों ने इन भवनों का निर्माण करवाया होगा उन्होंने अपनी सारी पूँजी और मेहनत इन पर खर्च की होगी. दरों दिवार की रंगाई पोताई से लेकर उनमे नक्काशी का अद्भुत मिश्रण घोला होगा. कहीं से पत्थर आएं होंगे तो कहीं सी सागौन की मजबूत लकड़ियाँ. मजदूर भी देश के कोने कोने से खोज कर निकाले गए होंगे. किसी चीज़ के निर्माण में कितनी मेहनत लगती है और फिर धीरे धीरे जब उसका अंत करीब आता है तो वही बेशकीमती चीज़ एक खँडहर में बदल जाती है.

हम इंसानों का भी यही हाल है. हम बनते हैं. संवरते हैं और एक दिन चुक जाते हैं. इंसानी बनावट को बुनने के लिए ज़रूरी खुराक लेते हैं और एक दिन इस दुनिया को अलविदा कह कर चले जाते हैं. हमारे बनने और बिगड़ जाने के बीच का यथार्थ कभी उन नई नवेली अंग्रेजी हवेलियों सा होता है तो कभी झाड़ झंखाड़ सा होना पड़ता है. जीवन के इस क्रूर सत्य से ज़िन्दगी का आईना हर मोड़ पर रूबरू करवाता है. हम देखते हैं और चलते जाते हैं.

1865 के आस पास ऑकलैंड रोड, इलाहाबाद पर ऐसे ही एक बंगले का निर्माण शुरू हुआ था. सड़क का नाम आज भी नहीं बदला है. एक शाम बेसुध सा मैं उस रास्ते पर भटकते हुए जा रहा था. सामने सूरज की आखरी किरण बस डूबने को होती है. ऊँचे और पुराने पेड़ों पर ख़ामोशी की गहरी परत जम चुकी होती है. चौड़ी और ख़ामोशी अख्तियार किये हुए सड़क पर मेरी कार का इंजन ऐसे शोर कर रहा होता है मानों तीन तरफ से घिरी नदी जो अपनी ही दुनिया में खोयी हुई मद्धम बह रही हो उसमे पहाड़ की एक चोटी से टूट कर पत्थर गिर गए हो. सड़क की ख़ामोशी को चीरने की गुस्ताखी मैंने की थी. जिस रास्ते पर मैं था वो अकेले का मेरा रास्ता नहीं था. वहां मौजदू बंगला, पेड़, पक्षी और डूबता सूरज सब उस रास्ते के साझीदार थे लेकिन गुस्ताखी अकेली मेरी थी. एक पल को आया की इंजन बंद कर दूँ और पैदल ही राह पकड़ लूं फिर ख्याल आया की यहाँ मौजूद इन दरख्तों ,परिंदों और बेजान से बंगले में क्या इतनी भी समझ नहीं की मेरी मौजदूगी को स्वीकार लें. स्वीकारना तो पड़ेगा ही. सबका अपना एक हिस्सा है यहाँ. मेरा भी है. दस सेकण्ड की ड्राइव के बाद बंगला छुप गया. पेड़ पीछे छूट गए और पक्षियों की कोलाहल सन्नाटे में बदल गई. मेरी चाल में कोई बदलाव नहीं आया. मैं ऑकलैंड रोड को पार करता हुआ कैंटोनमेंट की तरफ मुड़ चुका था. वहां के घुमावदार रास्तों से थोड़ा आगे जाने पर हाईकोर्ट की इमारत नज़र आ रही थी. इस रास्ते पर दोपहर का जाम और शाम का खालीपन क्या मेरी ज़िन्दगी की किसी कहानी की दावेदारी कर रहे थे. सड़क पर चलते हुए ऐसा ही लग रहा था. जिन रास्तों पर दिन भर बड़ी और लम्बी गाड़ियों का रेला लगा होता था वहां दूर तक नज़र दौड़ाने पर भी कोई नहीं दिख रहा था. इन सड़कों का भी लोग अपनी ज़रूरत के हिसाब से इस्तेमाल करते हैं. क्या मैं इनके खालीपन से उदास हूँ. कहीं ऐसा तो नहीं की ये सड़क शाम को ज्यादा अच्छा महसूस करती हो बनिस्बत दिन और दोपहर के. खैर कुछ भी, मुझे सड़क से इतनी लगाव नहीं रखनी चाहिए. क्योंकि मैं सड़क नहीं हूँ. मैं तो इंसान हूँ. भला कैसा समझूंगा सड़क क्या चाहती है और क्या नहीं. मेरी ज़िन्दगी में आये इस अचानक से खालीपन का मुझे ज़रूर दुःख है. ऐसी शाम की तवक्को मैंने कभी नहीं की थी, हाँ की थी पर किसी के साथ. जिसकी मौजदूगी से ही परिंदों और दरख्तों के झूम उठने का यकीन होता था. वो यहाँ नहीं है. उसकी जगह ये सड़क है. मैं इस सड़क को ही उसे समझ लेता हूँ. अब धीरे धीरे सड़क को मैं समझने लगा हूँ. ऐसा महसूस हो रहा है की कुछ देर के साथ के बाद मैंने उसे जान लिया. वो इस ख़ामोशी को पसंद कर रही है. इस खालीपन को वो जी रही है. सड़क चाहती है की उस पर कोई न चले. उसके साथ ये अकेलापन रहने दे.

मैं निकल आया हूँ. सड़क बैक मिरर में दिख रही है. जितना मैं उसे देख रहा हूँ वो उतना ही विस्तार ले रही है. पहले कम दिखती है फिर ज्यादा दिखने लगती है. धीरे धीरे एक दूरी बन गई. मुझमे और उसकी शुरुआत में. तभी चौराहा आ गया और मैंने गाड़ी राईट साइड मोड़ दी.


विनोद ने बिना कुछ पूछे कॉफ़ी और दो छोटी गोल्ड टेबल पर रख दी. और कुछ लेंगे साहब? हाँ, पानी लाना. 

Tuesday, 13 January 2015

वर्चस्व,विस्तार और विकास की पूंजीवादी सोच एवं नैतिकता

एक व्यक्ति बेहद मज़हबी है दूसरा मज़हब के लिए अँधा और तीसरा धर्म को पूरी तरह नकार कर ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखता। व्यक्तिगत स्तर पर यह तीनों हालात समझने लायक हैं।  इन स्थितियों से सहमत एवं असहमत हुआ जा सकता है।  इन सब स्थितियों की आलोचना भी की जा सकती है और परस्पर विरोध भी किया जा सकता है क्योंकि लोकतांत्रिक मूल्यों में विरोध/आलोचना/सहमती एवं असहमति का जितना स्थान है उतना धार्मिक चौहद्दी व्यक्तिगत अथवा समूह में किसी को प्रदान नहीं करता।  लेकिन धार्मिक रूप से सत्ता एवं राज्य जब किसी पंथ अथवा मज़हब का विरोध सरकारी तौर पर करने लगे और इसका असर भी साफ़ तौर पर दिखने लगे तब हालात बिगड़ और बदल जाते हैं। किसी भी धार्मिक विचार पर तब तक सरकारी संरक्षण के माध्यम से प्रतिबंध लगाना उचित नहीं जब तक वह दूसरों की धार्मिक या गैर धार्मिक पहचान का अतिक्रमण न कर रही हो।  जैसे ही कोई धर्म या व्यक्ति अपने विचारों को दूसरों पर आरोपित करने लगे या फिर खुद को दूसरों से बेहतर बताते हुए अपनी बातों को मनवाने का प्रयास करने लगे तो इसे गैरकानूनी और अनैतिक कहा जा सकता है।  

भारतीय लोकतांत्रिक बिन्दुओं को परखा जाए तो हम पाते हैं कि न सिर्फ बुरी बाते बल्कि किसी अच्छी बात को भी ज़बरदस्ती मनवाने की परम्परा गलत ही मानी जाती है। जो हमें सही लग रहा हो हो सकता है वह काल ,समय और परिस्थितियों के आधार पर कभी गलत भी मान लिया जाए।  यह भी संभव है की जिसे हम गलत मान रहे हो वह सही ठहरा दिया जाए।  भाषाई और नस्लीय आधार पर व्यक्तियों एवं समूहों द्वारा भेदभाव को हम आसानी से रेखांकित करते हुए महसूस कर सकते हैं लेकिन क़ानूनी तौर पर जब ऐसे ही किसी भेदभाव को राज्य सत्ता का प्रोत्साहन मिल जाता है तो वह बहुसंख्यक जमात के हाथों कमज़ोर एवं छोटे समूहों की आज़ादी को दरकिनार करने की एक कला बन जाती है।  

भारतीय लोकतंत्र हर किसी के विचारों की रक्षा करता हुआ प्रतीत होता है लेकिन इस लचीलेपन का लाभ वर्तमान में जो लोग उठा रहे हैं वे लोग दूसरों की आज़ादी के हिमायती बिल्कुल भी नहीं।  जनतंत्र का ढांचा ही ऐसा है की यहाँ गलत बात कहने का भी अधिकार लोगों के पास है। फ्रांस के महान विचारक वाल्टेयर ने कहा है, 'मैं जानता हूँ कि तुम जो कह रहे हो वह गलत है पर तुम्हारी बात कहने के अधिकार की रक्षा के लिए मैं अपनी जान भी दे सकता हूँ।' वाल्टेयर गलत बात कहने के अधिकार की बात तो कर रहा है लेकिन करने के अधिकार की बात वह नहीं कर रहा है।  यहाँ यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि संविधान हमारी अभिव्यक्ति की रक्षा तो करता है लेकिन वह हमें कुछ भी करने की आज़ादी नहीं देता।  एक महीन से फर्क से हम इन दोनों बातों को अलग अलग कर सकते हैं। जब संविधान हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है लेकिन कुछ भी करने की नहीं, वह इसलिए क्योंकि मनुष्य की संरचना में यह निहित है की वो जगत ज्ञाता नहीं है।  हर व्यक्ति में कहीं न कहीं कुछ खामियां हैं।  हो सकता है आप में कम खामियां हो लेकिन मुझमे आपसे अधिक गलतियाँ भरी पड़ी हों।  हम कुछ भी करेंगे तो उसका परिणाम निकलता है।  

जब तक अभिव्यक्ति या क्रियाएं व्यक्तिगत दायरे में रहती हैं तब तक उनका प्रभाव बड़े स्तर पर नहीं पड़ता लेकिन जैसे ही वह समूह अथवा वर्ग के पक्ष एवं विपक्ष में होने लगती हैं तो इसका असर सामाजिक तौर पर पड़ने लगता है और इससे दूसरे जन भी प्रभावित होने लगते हैं।  हर वह चीज़ जो एक दूसरे से जुड़ी हो वह व्यापक असर करने वाली होती हैं।  कोई एक जन ऐसी बाते करके यदि कहता है कि, 'मुझे तो अभिव्यक्ति की आज़ादी है,मैं कुछ भी बोलूं या कहूँ।' तो यह साफ़ तौर पर जनतंत्र के मूल स्वरुप के साथ खिलवाड़ होगा और सविधान द्वारा प्रदान किये गए मौलिक अधिकारों के साथ भी अन्याय। 

 धर्म के नाम पर आज अधर्म हो रहा है। पाखंडी बाबाओं , राजनीति के दिग्गजों एवं आम लोगों में से फूट रहे कथित ख़ास लोगों की प्रवृत्ति अत्यधिक विषैली होती जा रही है। भारत की बात करें तो यहाँ गांधी के आदर्शों के बजाये गोडसे की हिंसक और अधिनायकवादी सोच का चलन बढ़ता जा रहा है।  गोडसे ने भी गांधी की हत्या सिर्फ इस वजह से कर दी थी क्योंकि वह सोचता था कि सिर्फ उसका धर्म और उसके विचार सही हैं बाकियों के गलत। गोडसे सोचता था , जो गलत हैं उनका प्रतिनिधित्व गांधी कर रहे हैं इसलिए गांधी का संहार करना सबसे आसान तरीका है धर्म की रक्षा के लिए। लेकिन अधिकांश हिन्दू गांधी को निर्दोष एवं गोडसे को अपराधी मान कर उसका नाम तक लेना पसंद नहीं करते। 
 धर्म के नाम पर जो गलत हो रहा है वह नैतिक दृष्टि से धार्मिक और गैर धार्मिक दोनों को सहज नहीं लग रहा है।  दुनिया भर में मज़हबी उग्रपंथियों की ख़बरों से हम घिरे हुए हैं। सरसरी निगाह से देखा जाए तो यह स्थिति विश्व के लिए गंभीर खतरे का संकेत है।  ऐसे हालात किन वजहों से बने और इनके पीछे विश्व शांति के धुरंधरों का कितना हाथ है यह आप सबको पता ही होगा।  विकास ,वर्चस्व और विस्तार से पीड़ित जनता भारत के भीतर विरोध के लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ कहीं कहीं लड़ती दिखाई देती है।  मध्य पूर्व में भी हालात ख़राब हैं। अब इसकी चपेट में पश्चिम भी आ गया है। जिस वेस्ट ने वार अगेंस्ट टेरिरिज्म के नाम पर मध्य पूर्व में अपनी घुसपैठ जमाई आज उसके अपने घरों की खिड़कियां हजारों किलोमीटर दूर फूट रहे बमों और ड्रोन की सिहरन भरी आवाजों से टूट रही हैं।  
 यह सब आखिर हुआ कैसे ? हम धर्म को लेकर इतने असहनशील क्यों हैं कि ज़रा सी आलोचना या विरोध के बाद हिंसक हो जाते हैं ? सवाल यह भी उठता है कि क्या धर्म की आलोचना ही अंतिम समाधान है दुनिया और व्यक्तिगत समस्याओं की ? वैसे तो हम अपनी चीज़ किसी को देना या दिखाना तक पसंद नहीं करते लेकिन जैसे ही धर्म की आलोचना की बात आती है तो सबसे पहले दरवाज़े के बाहर खड़े मिलते हैं ?  आखिर ऐसा क्यों है की मोदी सरकार के आने के बाद देश भर के अल्पसंख्यकों पर हमलें बढ़ गए।  इस ब्लॉग को लिखते लिखते ही मेरी नज़र बिहार की एक खबर पर पड़ी जहाँ बजरंग दल के लोगों ने ईसाईयों पर हमले किये और उनके घरों में तोड़फोड़ की।  सत्ता के संरक्षण के बगैर धार्मिक पहचान पर हमलें नहीं होते।  दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों का समर्थन मोदी सरकार को है और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है की वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं।  यदि मोदी ऐसा कहते हैं तो उन्हें गलत कैसा कहा जा सकता है , यह बड़ा सवाल उन लोगों की तरफ से किया जाता है जो दुनिया भर में घट रही हिंसक वारदातों में मुसलमानों की संलिप्तता पर हमारे जैसे लोगों से यह अपेक्षा करता है की हम मुसलमानों की भी आलोचना करें। वे यह नहीं देखते की हमने हर तरह के संगठनात्मक हिंसक और फासीवादी गठजोड़ पर हमलें किये हैं. ठीक वैसे ही जैसे भारत के भीतर आर एस एस की आलोचना करते हुए पूरे हिन्दू समुदाय की आलोचना हमने कभी नहीं की।  वैसे ही बोको हराम अथवा आईएसआईएस का विरोध करते करते हम दुनिया भर के मुसलमानों अथवा इस्लाम का विरोध नहीं कर सकते। एक लम्हे के लिए ऐसे लोगों के इस आरोप को यदि सही माना जाए तो फिर सवाल बनता है कि भारतीय मुसलमानों की ज़िम्मेदारी वैश्विक जगत में घट रही हिंसक घटनाओं पर आखिर कैसे हो सकती है ? यह कहाँ तक ठीक है कि पाकिस्तान में बम ब्लास्ट करने वाले गुट की आलोचना करते करते हम इस्लाम ,कुरान और पैगम्बर तक को बीच में घसीट लायें ?  किसी एक व्यक्ति द्वारा किये गए अपराध की सज़ा पूरे परिवार को नहीं दी जा सकती लेकिन अपराधी को इस बात का लाभ भी नहीं लेने दिया जा सकता है वह फलां खानदान का है इसलिए उस खानदान की अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा था और ऐसे में हम उस अपराधी के साथ खड़े हैं । भारतीय मुसलमानों ने तो आज तक कभी सार्वजनिक मंचों या व्यक्तिगत प्रतिक्रिया में अला फलां आतंकी की हिमायत नहीं की।  या फिर मार्क्सवादी विचार को मानने वालों ने कभी खुद को उस आतंक से नहीं जोड़ा जो तालिबान कर रहा है।  हाँ यह अलग बात है की भारतीय मुसलमान और लेफ्ट के लोगों ने कट्टर साम्प्रदायिक हिंदुत्व के हिमायतियों से इतर जा कर आतंक की असली वजहों पर चर्चा को आगे बढ़ाया।  

फिलहाल इस्लाम को लेकर या फिर किसी भी धर्म को लेकर हो रही आलोचनाओं में गड़बड़ी का पैमाना कैसे तय होगा और यह तय कौन करेगा ? कुछ चीजें नैतिकता की दृष्टि से गलत हो सकती हैं पर क़ानूनी तौर पर वह गलत नहीं भी हो सकती।  झूठ बोलना नैतिक आयामों पर गलत है लेकिन झूठ बोलना गैर क़ानूनी नहीं है।  अर्थात सही क्या है और गलत क्या है वह परिस्तिथियों के आधार पर बदलता रहता है।  तो क्या इसका कोई मानक तय हो सकता है।  बिलकुल तय किया जा सकता है की धार्मिक आलोचनाएं कहाँ से गड़बड़ी शुरू करती हैं।  हम यह कर सकते हैं की किसी को तकलीफ पहुँचाना गलत मना जाए और खुशियाँ बांटना सही।  किसी भी व्यक्ति या समूह को मन अथवा कर्म से दुःख पहुंचाने को नैतिक ,सामाजिक और क़ानूनी तौर पर गलत माना गया है।  यदि हम कुछ कर सकते हैं तो बस इतना कर सकते हैं की किसी को हमारे आचरण से कष्ट न पहुंचे।  धार्मिक और गैर धार्मिक व्यक्ति , व्यक्तिगत विषयवस्तु नहीं है क्योंकि वह हम सबके बीच रहता है।  उसकी इतनी ज़िम्मेदारी बनती है कि वह पीड़ा दायक बातों को प्रसारित करने से खुद को रोके।  सबसे बड़ा कर्तव्य यही है।  

मज़हबी कट्टरता का सबसे गलत उदाहरण इस्लाम के नाम पर फैलाया जा रहा है जबकि वास्तव में आतंकी गतिविधियों में संलिप्त मुसलमान इस्लाम के पैरोकार नहीं।  यह इसलिए क्योंकि जिस बेरहमी से वे गैर मुस्लिमों की ह्त्या करते हैं ठीक वैसे ही वे मुसलमानों को भी मौत के घाट उतार देते हैं। हमें यह स्वीकारना ही होगा कि इस तरह की हिंसक वारदातों के पीछे वर्चस्व,विस्तार और विकास की पूंजीवादी सोच है जो समूहों के मध्य ऐसे हालात बना कर खुद तो अच्छी ज़िन्दगी गुजारती है और आम लोगों को आपस में लड़ने के मौके देती है। इसे समाप्त करने के लिए हमें अपनी सोच बदलनी होगी।  हमें वापस से गांधी के आदर्शों पर लौट कर चलना होगा जहाँ हर कोई प्यार से रह सकता था। 

Wednesday, 7 January 2015

आप मेरा कार्टून बना सकते हैं.

फ्रेंच भाषा की व्यंगात्मक साप्ताहिक मैगजीन चार्ली हेब्दो के दफ्तर पर हमला करके सम्पादक, चार कार्टूनिस्ट समेत एक दर्ज़न के करीब मीडियाकर्मियों की हत्या कर दी गई. मीडिया में आ रही रिपोर्ट को आधार माना जाए तो ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस्लाम के पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहब को पत्रिका ने अपना अतिथि सम्पादक बना कर आपत्तिजनक लेख लिखे एवं कार्टून बनाया था.
भारत में सोशल मीडिया पर इसे लेकर हो रही बहसों में कई पक्ष देखने को मिल रहे हैं.
हिन्दू कट्टरपंथियों ने इस हमलें के बाद इस्लाम और मुसलमानों को आतंकवाद से सीधे तौर पर जोड़ कर तीखे शब्द लिखें हैं. उनका कहना है कि, ‘शांति का मज़हब,दुनिया भर में अशांति फैला रहा है. वैश्विक शांति के लिए इस्लाम सबसे बड़ा ख़तरा है.’ वहीँ दूसरी तरफ फेसबुकिया नास्तिकों जिन्होंने कभी सरस्वती शिशु मंदिरों से अपनी दीक्षा पूर्ण की थी वे भी इस्लाम और मुसलमानों को अपमानित करने में किसी तरह की कमी नहीं रहने देना चाह रहे हैं. इनके निशाने पर हमलावर कम, भारतीय मुसलमान ज्यादा हैं. ऐसा करने वालों में वे भी शामिल हैं जिन्हें लगता है मुसलमानों की निंदा और इस्लाम को भला बुरा कहे बिना सेक्युलर जमात में उनकी एंट्री बैन हो जाएगी.
पढ़ा लिखा तबका इस पूरी घटना की निंदा सधे हुए शब्दों में कर रहा है. वह पूरे सम्प्रदाय को इसका दोषी करार नहीं दे  रहा है लेकिन इस्लाम से ज़रूर जोड़ कर देख रहा है. वहीँ भारतीय मुसलमानों की तरफ से हमेशा की तरह वैश्विक पटल पर घटी हिंसक वारदातों के बाद निंदा और आलोचना का दौर तो शुरू हुआ लेकिन वे उस ट्रैप में फंस गए जिसमे उन्हें हमेशा फंसाया जाता है. भारतीय मुसलमानों को विश्व में घटी मुस्लिम जगत की दूसरी किसी सकारात्मक घटना पर प्रतिक्रिया नहीं मांगी जाती लेकिन जैसे ही कोई आतंकी घटना होती है तो लोगों का समूह उन्हें घेर लेता है और यह मनवाने की भरसक कोशिश करता है की देखो कैसा है तुम्हारा इस्लाम. इसके बाद वह हफ़्तों कुरान और हदीसों से शांति और सौहार्द की आयतों एवं बातों को उठा उठा कर दिखाता रहता है जिसका असर उन पर रत्ती भर नहीं पड़ता जो ऐसी घटनाओं के बाद इस्लाम और भारतीय मुसलमानों को अपमानित करने में लगे होते हैं. जो लोग सोशल मीडिया पर तरह तरह के विचारों की दूकान चला रहे हैं यदि वे इस तरह की घटना पर पूरी कौम को नहीं घेरेंगे तो उनका औचित्य समाप्त हो जायेगा. मेरे कहने का मतलब यह है की ऐसी बहस से बचना चाहिए जिसका कोई ओर छोर न हो. हिंसा का विरोध ज़रूर होना चाहिए लेकिन ऐसी हिंसात्मक कार्यवाइयों की आड़ में वैचारिक समूहों द्वारा की जा रही बहसों का निहितार्थ समझना पड़ेगा.  
चार्ली हेब्दो मैगजीन व्यंग के तीखे तेवरों की वजह से कट्टरपंथियों की आलोचना की शिकार होती रही है लेकिन अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इस्लाम के पैगम्बर का कार्टून बनाना कहीं से भी न्यायोचित और तर्क संगत नहीं ठहराया जा सकता. इस्लाम मूर्तिपूजा की मनाही करता है. हज़रात मुहम्मद की न तो कोई तस्वीर है और न ही ऐसी किसी रचना की इजाज़त इस्लाम देता है. यह साफ़ तौर पर दूसरों की धार्मिक आस्था, विश्वास और स्वतंत्रता के साथ छेड़छाड़ है. 
यदि हिन्दू देवी देवताओं अथवा अन्य किसी धर्म एवं वर्ग के महापुरुषों की तरह इस्लाम धर्म के किसी महापुरुष (हज़रात मुहम्मद) की कोई छाया प्रति अथवा पेंटिंग मौजूद होती तो निसंदेह किसी को आपत्ति नहीं होती लेकिन यहाँ तो मुहम्मद की तस्वीर या कार्टून जैसा कुछ उपलब्ध नहीं है. जिन सज्जन लोगों को लगता है मुहम्मद का कार्टून उदारवादी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया तो वे फ्रांस में हिजाब पर पाबंदी को किस उदारवाद की श्रेणी में रखेंगे. स्कूल में हिजाब लगा कर जाने वाली नौ साल की बच्ची को लेकर पूरे देश में माहौल गर्म हुआ और अंततः पूरे फ्रांस में हिजाब पर पाबंदी लगा दी गई. द गार्जियन की खबर है की इस कार्यवाई से मुस्लिम महिलाएं अपने घरों में कैद हो कर रह गईं हैं. किसी भी तरह के व्यवसायिक कार्य से उन्हें बिलकुल अलग थलग होना पड़ रहा है. यदि मुस्लिम महिलाओं की तरफ से हिजाब पर पाबन्दी की मांग की गई होती तो वे घरों के भीतर क्यों बैठ जाती. फ्रांस की सरकार ने कहा कि, ‘देश के सेक्युलर फैब्रिक को बनाए रखने के लिए हिजाब को बैन करना ज़रूरी था.’ तो क्या उस सरकार को देश में रह रहे मुसलमानों की जीवन शैली की परवाह नहीं करनी चाहिए थी? क्या फ्रेंच मुसलमानों ने फ्रांस में रह रहे दूसरे धार्मिक समूहों की महिलाओं को हिजाब पहनने की वकालत की? नहीं की. तो फिर इस्लाम धर्म को मानने वाले हिजाब लगा लें या फांसी लगा लें,यदि उन्हें हिज़ाब से दिक्कत नहीं है तो सरकारी कानूनों के माध्यम से कोई राज्य अपने नागरिकों के आधारभूत अधिकारों का हनन आखिर कैसे कर सकता है? क्या फ्रांस ने ईसाईयों को अपने सीने पर क्रास लटकाने की पाबंदी लगाई,नहीं.

हमें यह समझना होगा कि पैगम्बर हज़रत मुहम्मद की तस्वीर अथवा कार्टून को मार्केट, रिलिजन इकोनामी बिजनेस के तौर पर परोस सकती है. एकेश्वरवाद के सिद्धांत वाला धर्म बहुदेववाद में फंस सकता है. जो की इस्लाम के आधारभूत सिद्धांत के एकदम विपरीत है. मैं यह भी कहता हूँ कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का पैमाना दो मुंह वाला नहीं होना चाहिए. जिन संस्कृतियों और धर्मों में उपासकों की तस्वीरें अथवा चित्र मिलते हैं, उन्हें दिखाना अथवा पूजना आस्था आधारित हो सकता है लेकिन जिस मज़हब ने ऐसे किसी आधार को सिरे से खारिज कर दिया है वहां मूर्ति अथवा तस्वीर या इससे मिलती जुलती चीजों को दिखाना और थोपना अभिव्यक्ति की आज़ादी बिलकुल नहीं. हिंसा ऐसे कृत्यों का जवाब नहीं हो सकता. ऐसी घटनाए भविष्य में न हो इसलिए हज़रत मुहम्मद का कार्टून बनाने की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए. आप मेरा कार्टून बना सकते हैं. इस्लाम की आलोचना मन भर कर, कर सकते हैं. मुझे कोई आपत्ति नहीं. लेकिन जिस कृत्य से किसी की मज़हबी पहचान,संस्कृति एवं सभ्यता पर बेवजह का सवाल खड़ा किया जाएगा उसकी आलोचना तो करनी ही होगी और मैं करूँगा. 

Tuesday, 11 November 2014

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाम सेक्यूलर दिखना है

मुख्यधारा की मीडिया स्त्रियों,दलितों ,शोषितों और अल्पसंख्यकों के प्रति हमेशा से दोहरापन अख्तियार किए हुए है. यह कोई आरोप नहीं बल्कि सिद्ध हुआ सच है. मुसलमानों के मुद्दों से जुड़ी हुई बातों के प्रति हिंदी और अंग्रेजी की पत्रकारिता एवं मीडिया संस्थान जितने पूर्वाग्रही हैं उतना किसी अपराधी के प्रति पुलिस भी नहीं हुआ करती.
वर्तमान में सोशल मीडिया पर यह ट्रेंड मजबूती से अपनी पकड़ बना रहा है जिसमें मुसलमानों को यह सोचने और स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाने लगा है की आपकी संस्कृति, सभ्यता, भाषा और व्यवहार आम नागरिकों से बहुत अलग और दयनीय है. इसमें तथाकथित प्रगतिशील बदलाव की बेहद ज़रूरत है यदि ऐसा नहीं किया गया तो आप की गिनती पुरातनपंथी, दकियानूसी और कठमुल्ले में की जाएगी. यह दबाव की राजनीति न सिर्फ भगवा ब्रिगेड की तरफ से अपितु सोशल मीडिया के कथित वामपंथियों की तरफ से भी हो रही है.
भगवा खेमे में एक लम्बे वक्त से सेक्यूलरवाद को लेकर मिथ्याप्रचार हो रहा है जिसका असर अब कम्युनिस्टों में साफ़ तौर पर देखा जाने लगा है. हाल ही में गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में ‘बहुसंख्यक राजनीति और हिंदुत्व’ पर एक सेमीनार आयोजित किया गया जहां बहुत सारे वक्ताओं में शामिल महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति वीएन राय ने भी अपने विचार रखे. वीएन राय खुद को कम्युनिस्ट कहते हैं और उन्हें कम्युनिस्ट के तौर पर स्वीकार भी किया जाता है. उनका कहना था, ‘वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमला होता है, सबको पता है वह हमला ओसामा ने करवाया था. फिर मुसलमान उसकी आलोचना क्यों नहीं करते. जब कहीं देश में ब्लास्ट होता है तो मुस्लिम लड़के पकड़े जाते हैं. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ऐसे आतंकियों का समर्थन करते हुए इनके पकड़े जाने पर सवाल उठाते हैं. मुंबई ब्लास्ट में बहुत सारे लोग मारे गए और मुसलमान कहते हैं की ब्लास्ट में कोई बड़ी साज़िश की गई थी मुसलमानों को बदनाम करने के लिए.’ इस गोष्ठी में आरएसएस के पूर्व प्रचारक गोविन्दाचार्य भी शामिल थे.
वीएन राय ने यह सब इसलिए कहा क्योंकि उनका मानना था सेक्युलरिज्म के लिए सिर्फ बहुसंख्यकों की आलोचना नहीं होनी चाहिए बल्कि अल्पसंख्यक उभार पर भी चोट करते रहना चाहिए. यहां कई महत्वपूर्ण सवाल उभरते हैं. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले की कई कहानियां हैं, यदि उसके दूसरे पक्षों पर बात कोई करता है तो उसकी आलोचना क्यों की जानी चाहिए. न सिर्फ मुसलमान बल्कि दुनिया भर के चुनिंदा लोग अमेरिका पर हुए हमले की थ्योरी के कई पक्ष से लोगों को रूबरू करवाते रहते हैं.  मुंबई हमले से पहले उग्र हिंदुत्व और देश के भीतर मुसलमानों को निशाना बना कर किए गए हमलों को एटीएस चीफ़ हेमंत करकरे और उनकी टीम ने सबके सामने खोल कर रख दिया. करकरे और उनकी टीम इस हमले में सबसे पहले निशाना बनती है. करकरे की पत्नी ने सरकार से किसी भी तरह की मदद लेने से इंकार करते हुए निष्पक्ष जांच की मांग की थी जिसका आज तक कुछ पता नहीं चला. तो क्या हेमंत करकरे की पत्नी और उनका परिवार धर्मनिरपेक्षिता के लिए ख़तरा बन गया और हम सब उनकी आलोचना करें. राय साहब को शायद पता नहीं है की हर महीने सर्वोच्च अदालत से ऐसे मुस्लिम युवा बरी हो जाते हैं जिन्हें पुलिस ने आतंकवाद के आरोप में दस से पन्द्रह सालों तक जेल में बंद रखा. तो क्या न्यायिक प्रणाली में अपने हक़ के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को फांसी पर चढ़ा देना चाहिए. इन नौजवानों से उनके न्यायिक अधिकार छीन लेने चाहिए क्योंकि बहुसंख्यक कट्टरता के खिलाफ हम हमेशा बोलते लिखते हैं तो हमें अल्पसंख्यकों के खिलाफ भी लिखने बोलने के लिए जगह और ज़मीन चाहिए.
धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण का अर्थ यह नहीं है की हम सही को गलत और गलत को सही कहें. इसका तो सिर्फ इतना मतलब निकलता है की धर्म और जाति या अवसरवादिता के मोह में फंस कर हम पक्षपात न करें.
सेक्यूलर और भगवा खेमे के दबाव का ही असर है की अलीगढ़ मुस्लिम विवि की स्नातक छात्राओं के एक गुट द्वारा उठाए लाइब्रेरी के मुद्दे पर संस्थान की ज़बरदस्त आलोचना की जाने लगी. सोशल मीडिया पर मैंने अजीब ओ गरीब तर्क देखें. एक कम्युनिस्ट साथी के फेसबुक पर वाल पर किसी संघी मित्र ने फोटो पोस्ट की है जिसमे उसने लिखा है, ‘कहां गए वे वामपंथी जिन्होंने आर एस एस दफ्तर के सामने चुम्बन अभियान चलाया था अब वे सब एएमयू के सामने किस आफ लव क्यों नहीं चलाते.’
इस फोटू के दस मिनट के बाद ही उस कम्युनिस्ट साथी के वाल पर यह स्टेट्स आया जिसमे लिखा था, ‘दिल्ली विवि में पोस्ट ग्रेजुएशन में लड़कियों और लड़कों को लाइब्रेरी में जाने की अनुमति है लेकिन एएमयू के महिला कालेज की लड़कियों को मुख्य लाइब्रेरी से दूर रखा गया है.’
वामपंथी साथी ने कितनी धूर्तता और चालाकी से दिल्ली विवि को प्रगतिशील और एएमयू को मध्ययुगीन बना दिया यह सबको दिखा लेकिन किसी ने इस बात का विरोध नहीं किया क्योंकि ऐसा करने से सेक्युलरिज्म का तमगा छीन लिया जाता. संघी साथी की तरफ से जिस तरह की बात लिखी गई वह आम कम्युनिस्टों पर दबाव के लिए ताने के रूप में इस्तेमाल की जाती है जिसके बाद कम्युनिस्ट बिना सोचे समझे कूद पड़ते हैं. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में 18 हजार विद्यार्थी हैं जिसमे से 8 हजार छात्राएं हैं. यह अनुपात किसी भी केन्द्रीय विवि के बराबर या उससे अधिक हो सकता है. 1960 में बनी मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में 2013-14 के मध्य 19 हजार किताबे सिर्फ लड़कियों के नाम जारी की गई.लैंगिक भेदभाव अगर होता तो लड़कियां मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में कैसे प्रवेश करती ?

यहां यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है की अल्पसंख्यक कट्टरता आखिर परिभाषित कैसे होगी. क्या बिना जाने समझे और तथ्यों को अपने हिसाब से तोड़ मरोड़ कर पेश करने के बाद क्या आम मुसलमान, इस तरह की आलोचना को पचा पाएगा. यदि मुस्लिम समाज में परिवर्तन या बुराइयों के प्रति जागरूकता जैसा कुछ करने की किसी ने सोची है आखिर वह क्यों तथ्यहीन प्रमाणों को जनता के सामने रखेगा. एएमयू किसी लड़की का ससुराल या हरियाणा के माँ की कोख नहीं है जहां लड़कियों के साथ अत्याचार हो रहा है. जैसा अधिकार बाकी केन्द्रीय विवि में है ठीक वही नियम कानून और कायदे वहां भी चल रहे हैं. सेक्यूलर बने रहने के लिए एएमयू की आलोचना से नुकसान सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों का होगा. उन्हें आपकी इन बातों के प्रति जवाबदेह होना पड़ जाता है. जोंक जिस्म पर चिपक जाता है तो खुद से नहीं छूटता, उसे निकालना पड़ता है. कथित कम्युनिस्ट, मुसलमानों के साथ जोंक जैसा बर्ताव कर रहे हैं. चिपकते हैं तो खून चूस कर ही मानते हैं. निकालना न निकालना तो बाद की बात है. भगवा सवाल उठाए तो समझ में आता है. लेकिन आपकी बौद्धिकता कहाँ चली गई जो आप भी बह जाते हैं प्रोपगेंडा के साथ.  एएमयू के कुलपति ने अपने उस बयान का खंडन किया है जिसे मीडिया बार बार दिखा रही है कि, ‘लड़कियों के आने से लड़कों की भीड़ बढ़ जाएगी.’ कुलपति का कहना है बातों बातों में यह बात व्यंग के लहजे में निकली थी. कहीं कोई लिखित नोटिस नहीं जारी की गई थी. ज़ुबान कई बार फिसल जाती है कुलपति साहब, लेकिन यूं भी मत फिसल जाने दीजिए की हम पर सवाल उठने लगे. अलीगढ़ मुस्लिम विवि भारतीय शिक्षा प्रणाली के लिए गौरव का सूचक है. इसके स्वर्णिम इतिहास और प्रगतिशील वर्तमान को बचाए रखिए क्योंकि भविष्य में इससे भी बड़े खतरे उठाने पड़ेंगे. यह तो कुछ भी नहीं.