Tuesday 13 January 2015

वर्चस्व,विस्तार और विकास की पूंजीवादी सोच एवं नैतिकता

एक व्यक्ति बेहद मज़हबी है दूसरा मज़हब के लिए अँधा और तीसरा धर्म को पूरी तरह नकार कर ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखता। व्यक्तिगत स्तर पर यह तीनों हालात समझने लायक हैं।  इन स्थितियों से सहमत एवं असहमत हुआ जा सकता है।  इन सब स्थितियों की आलोचना भी की जा सकती है और परस्पर विरोध भी किया जा सकता है क्योंकि लोकतांत्रिक मूल्यों में विरोध/आलोचना/सहमती एवं असहमति का जितना स्थान है उतना धार्मिक चौहद्दी व्यक्तिगत अथवा समूह में किसी को प्रदान नहीं करता।  लेकिन धार्मिक रूप से सत्ता एवं राज्य जब किसी पंथ अथवा मज़हब का विरोध सरकारी तौर पर करने लगे और इसका असर भी साफ़ तौर पर दिखने लगे तब हालात बिगड़ और बदल जाते हैं। किसी भी धार्मिक विचार पर तब तक सरकारी संरक्षण के माध्यम से प्रतिबंध लगाना उचित नहीं जब तक वह दूसरों की धार्मिक या गैर धार्मिक पहचान का अतिक्रमण न कर रही हो।  जैसे ही कोई धर्म या व्यक्ति अपने विचारों को दूसरों पर आरोपित करने लगे या फिर खुद को दूसरों से बेहतर बताते हुए अपनी बातों को मनवाने का प्रयास करने लगे तो इसे गैरकानूनी और अनैतिक कहा जा सकता है।  

भारतीय लोकतांत्रिक बिन्दुओं को परखा जाए तो हम पाते हैं कि न सिर्फ बुरी बाते बल्कि किसी अच्छी बात को भी ज़बरदस्ती मनवाने की परम्परा गलत ही मानी जाती है। जो हमें सही लग रहा हो हो सकता है वह काल ,समय और परिस्थितियों के आधार पर कभी गलत भी मान लिया जाए।  यह भी संभव है की जिसे हम गलत मान रहे हो वह सही ठहरा दिया जाए।  भाषाई और नस्लीय आधार पर व्यक्तियों एवं समूहों द्वारा भेदभाव को हम आसानी से रेखांकित करते हुए महसूस कर सकते हैं लेकिन क़ानूनी तौर पर जब ऐसे ही किसी भेदभाव को राज्य सत्ता का प्रोत्साहन मिल जाता है तो वह बहुसंख्यक जमात के हाथों कमज़ोर एवं छोटे समूहों की आज़ादी को दरकिनार करने की एक कला बन जाती है।  

भारतीय लोकतंत्र हर किसी के विचारों की रक्षा करता हुआ प्रतीत होता है लेकिन इस लचीलेपन का लाभ वर्तमान में जो लोग उठा रहे हैं वे लोग दूसरों की आज़ादी के हिमायती बिल्कुल भी नहीं।  जनतंत्र का ढांचा ही ऐसा है की यहाँ गलत बात कहने का भी अधिकार लोगों के पास है। फ्रांस के महान विचारक वाल्टेयर ने कहा है, 'मैं जानता हूँ कि तुम जो कह रहे हो वह गलत है पर तुम्हारी बात कहने के अधिकार की रक्षा के लिए मैं अपनी जान भी दे सकता हूँ।' वाल्टेयर गलत बात कहने के अधिकार की बात तो कर रहा है लेकिन करने के अधिकार की बात वह नहीं कर रहा है।  यहाँ यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि संविधान हमारी अभिव्यक्ति की रक्षा तो करता है लेकिन वह हमें कुछ भी करने की आज़ादी नहीं देता।  एक महीन से फर्क से हम इन दोनों बातों को अलग अलग कर सकते हैं। जब संविधान हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है लेकिन कुछ भी करने की नहीं, वह इसलिए क्योंकि मनुष्य की संरचना में यह निहित है की वो जगत ज्ञाता नहीं है।  हर व्यक्ति में कहीं न कहीं कुछ खामियां हैं।  हो सकता है आप में कम खामियां हो लेकिन मुझमे आपसे अधिक गलतियाँ भरी पड़ी हों।  हम कुछ भी करेंगे तो उसका परिणाम निकलता है।  

जब तक अभिव्यक्ति या क्रियाएं व्यक्तिगत दायरे में रहती हैं तब तक उनका प्रभाव बड़े स्तर पर नहीं पड़ता लेकिन जैसे ही वह समूह अथवा वर्ग के पक्ष एवं विपक्ष में होने लगती हैं तो इसका असर सामाजिक तौर पर पड़ने लगता है और इससे दूसरे जन भी प्रभावित होने लगते हैं।  हर वह चीज़ जो एक दूसरे से जुड़ी हो वह व्यापक असर करने वाली होती हैं।  कोई एक जन ऐसी बाते करके यदि कहता है कि, 'मुझे तो अभिव्यक्ति की आज़ादी है,मैं कुछ भी बोलूं या कहूँ।' तो यह साफ़ तौर पर जनतंत्र के मूल स्वरुप के साथ खिलवाड़ होगा और सविधान द्वारा प्रदान किये गए मौलिक अधिकारों के साथ भी अन्याय। 

 धर्म के नाम पर आज अधर्म हो रहा है। पाखंडी बाबाओं , राजनीति के दिग्गजों एवं आम लोगों में से फूट रहे कथित ख़ास लोगों की प्रवृत्ति अत्यधिक विषैली होती जा रही है। भारत की बात करें तो यहाँ गांधी के आदर्शों के बजाये गोडसे की हिंसक और अधिनायकवादी सोच का चलन बढ़ता जा रहा है।  गोडसे ने भी गांधी की हत्या सिर्फ इस वजह से कर दी थी क्योंकि वह सोचता था कि सिर्फ उसका धर्म और उसके विचार सही हैं बाकियों के गलत। गोडसे सोचता था , जो गलत हैं उनका प्रतिनिधित्व गांधी कर रहे हैं इसलिए गांधी का संहार करना सबसे आसान तरीका है धर्म की रक्षा के लिए। लेकिन अधिकांश हिन्दू गांधी को निर्दोष एवं गोडसे को अपराधी मान कर उसका नाम तक लेना पसंद नहीं करते। 
 धर्म के नाम पर जो गलत हो रहा है वह नैतिक दृष्टि से धार्मिक और गैर धार्मिक दोनों को सहज नहीं लग रहा है।  दुनिया भर में मज़हबी उग्रपंथियों की ख़बरों से हम घिरे हुए हैं। सरसरी निगाह से देखा जाए तो यह स्थिति विश्व के लिए गंभीर खतरे का संकेत है।  ऐसे हालात किन वजहों से बने और इनके पीछे विश्व शांति के धुरंधरों का कितना हाथ है यह आप सबको पता ही होगा।  विकास ,वर्चस्व और विस्तार से पीड़ित जनता भारत के भीतर विरोध के लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ कहीं कहीं लड़ती दिखाई देती है।  मध्य पूर्व में भी हालात ख़राब हैं। अब इसकी चपेट में पश्चिम भी आ गया है। जिस वेस्ट ने वार अगेंस्ट टेरिरिज्म के नाम पर मध्य पूर्व में अपनी घुसपैठ जमाई आज उसके अपने घरों की खिड़कियां हजारों किलोमीटर दूर फूट रहे बमों और ड्रोन की सिहरन भरी आवाजों से टूट रही हैं।  
 यह सब आखिर हुआ कैसे ? हम धर्म को लेकर इतने असहनशील क्यों हैं कि ज़रा सी आलोचना या विरोध के बाद हिंसक हो जाते हैं ? सवाल यह भी उठता है कि क्या धर्म की आलोचना ही अंतिम समाधान है दुनिया और व्यक्तिगत समस्याओं की ? वैसे तो हम अपनी चीज़ किसी को देना या दिखाना तक पसंद नहीं करते लेकिन जैसे ही धर्म की आलोचना की बात आती है तो सबसे पहले दरवाज़े के बाहर खड़े मिलते हैं ?  आखिर ऐसा क्यों है की मोदी सरकार के आने के बाद देश भर के अल्पसंख्यकों पर हमलें बढ़ गए।  इस ब्लॉग को लिखते लिखते ही मेरी नज़र बिहार की एक खबर पर पड़ी जहाँ बजरंग दल के लोगों ने ईसाईयों पर हमले किये और उनके घरों में तोड़फोड़ की।  सत्ता के संरक्षण के बगैर धार्मिक पहचान पर हमलें नहीं होते।  दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों का समर्थन मोदी सरकार को है और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है की वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं।  यदि मोदी ऐसा कहते हैं तो उन्हें गलत कैसा कहा जा सकता है , यह बड़ा सवाल उन लोगों की तरफ से किया जाता है जो दुनिया भर में घट रही हिंसक वारदातों में मुसलमानों की संलिप्तता पर हमारे जैसे लोगों से यह अपेक्षा करता है की हम मुसलमानों की भी आलोचना करें। वे यह नहीं देखते की हमने हर तरह के संगठनात्मक हिंसक और फासीवादी गठजोड़ पर हमलें किये हैं. ठीक वैसे ही जैसे भारत के भीतर आर एस एस की आलोचना करते हुए पूरे हिन्दू समुदाय की आलोचना हमने कभी नहीं की।  वैसे ही बोको हराम अथवा आईएसआईएस का विरोध करते करते हम दुनिया भर के मुसलमानों अथवा इस्लाम का विरोध नहीं कर सकते। एक लम्हे के लिए ऐसे लोगों के इस आरोप को यदि सही माना जाए तो फिर सवाल बनता है कि भारतीय मुसलमानों की ज़िम्मेदारी वैश्विक जगत में घट रही हिंसक घटनाओं पर आखिर कैसे हो सकती है ? यह कहाँ तक ठीक है कि पाकिस्तान में बम ब्लास्ट करने वाले गुट की आलोचना करते करते हम इस्लाम ,कुरान और पैगम्बर तक को बीच में घसीट लायें ?  किसी एक व्यक्ति द्वारा किये गए अपराध की सज़ा पूरे परिवार को नहीं दी जा सकती लेकिन अपराधी को इस बात का लाभ भी नहीं लेने दिया जा सकता है वह फलां खानदान का है इसलिए उस खानदान की अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा था और ऐसे में हम उस अपराधी के साथ खड़े हैं । भारतीय मुसलमानों ने तो आज तक कभी सार्वजनिक मंचों या व्यक्तिगत प्रतिक्रिया में अला फलां आतंकी की हिमायत नहीं की।  या फिर मार्क्सवादी विचार को मानने वालों ने कभी खुद को उस आतंक से नहीं जोड़ा जो तालिबान कर रहा है।  हाँ यह अलग बात है की भारतीय मुसलमान और लेफ्ट के लोगों ने कट्टर साम्प्रदायिक हिंदुत्व के हिमायतियों से इतर जा कर आतंक की असली वजहों पर चर्चा को आगे बढ़ाया।  

फिलहाल इस्लाम को लेकर या फिर किसी भी धर्म को लेकर हो रही आलोचनाओं में गड़बड़ी का पैमाना कैसे तय होगा और यह तय कौन करेगा ? कुछ चीजें नैतिकता की दृष्टि से गलत हो सकती हैं पर क़ानूनी तौर पर वह गलत नहीं भी हो सकती।  झूठ बोलना नैतिक आयामों पर गलत है लेकिन झूठ बोलना गैर क़ानूनी नहीं है।  अर्थात सही क्या है और गलत क्या है वह परिस्तिथियों के आधार पर बदलता रहता है।  तो क्या इसका कोई मानक तय हो सकता है।  बिलकुल तय किया जा सकता है की धार्मिक आलोचनाएं कहाँ से गड़बड़ी शुरू करती हैं।  हम यह कर सकते हैं की किसी को तकलीफ पहुँचाना गलत मना जाए और खुशियाँ बांटना सही।  किसी भी व्यक्ति या समूह को मन अथवा कर्म से दुःख पहुंचाने को नैतिक ,सामाजिक और क़ानूनी तौर पर गलत माना गया है।  यदि हम कुछ कर सकते हैं तो बस इतना कर सकते हैं की किसी को हमारे आचरण से कष्ट न पहुंचे।  धार्मिक और गैर धार्मिक व्यक्ति , व्यक्तिगत विषयवस्तु नहीं है क्योंकि वह हम सबके बीच रहता है।  उसकी इतनी ज़िम्मेदारी बनती है कि वह पीड़ा दायक बातों को प्रसारित करने से खुद को रोके।  सबसे बड़ा कर्तव्य यही है।  

मज़हबी कट्टरता का सबसे गलत उदाहरण इस्लाम के नाम पर फैलाया जा रहा है जबकि वास्तव में आतंकी गतिविधियों में संलिप्त मुसलमान इस्लाम के पैरोकार नहीं।  यह इसलिए क्योंकि जिस बेरहमी से वे गैर मुस्लिमों की ह्त्या करते हैं ठीक वैसे ही वे मुसलमानों को भी मौत के घाट उतार देते हैं। हमें यह स्वीकारना ही होगा कि इस तरह की हिंसक वारदातों के पीछे वर्चस्व,विस्तार और विकास की पूंजीवादी सोच है जो समूहों के मध्य ऐसे हालात बना कर खुद तो अच्छी ज़िन्दगी गुजारती है और आम लोगों को आपस में लड़ने के मौके देती है। इसे समाप्त करने के लिए हमें अपनी सोच बदलनी होगी।  हमें वापस से गांधी के आदर्शों पर लौट कर चलना होगा जहाँ हर कोई प्यार से रह सकता था। 

2 comments:

  1. धार्मिक कट्टरता वहीँ से शुरू हो जाती है जब फ़र्ज़ी नास्तिकता का खोल ओढ़ कर धर्म की आड़ लेकर धर्म को गरियाया जाए. कुछ लोगों को इसमें महारत हासिल है. एकाध बार अपने धर्म को भी लताड़ लेंगे पर उसके दहाई के आंकड़े में दुसरे धर्म ख़ास तौर से इस्लाम को मुसलमानों के आड़ में गरियायेंगे. pk पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुछ और हो जाती है और शर्ली हेब्दो पर कुछ और...ऐसे लोग मानसिक रोगी होते हैं और इनका समाज में कोई जगह नहीं होना चाहिए.

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  2. अनस भाई, हमारे हर लम्हे में विकास की पूंजीवादी सोच हावी है। अपना इतना बड़ा लंबा चौड़ा जो लेख लिखा है, वह बहुत उम्दा तो है लेकिन धार्मिक हमलों की बात पर पहुंचते-पहुंचते पहुंचे हैं। क्यों हुसैन की पेंटिंग पर वह तबका एतराज करता है जो आज शार्ली एब्दो के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई दे रहा है। हालांकि मैं खुद उस हमले की कड़ी निंदा करता हूं। लेकिन विकास के पापा और उनके पैरोकार किस मुंह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का रोना रोते हैं...

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