Tuesday 11 November 2014

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाम सेक्यूलर दिखना है

मुख्यधारा की मीडिया स्त्रियों,दलितों ,शोषितों और अल्पसंख्यकों के प्रति हमेशा से दोहरापन अख्तियार किए हुए है. यह कोई आरोप नहीं बल्कि सिद्ध हुआ सच है. मुसलमानों के मुद्दों से जुड़ी हुई बातों के प्रति हिंदी और अंग्रेजी की पत्रकारिता एवं मीडिया संस्थान जितने पूर्वाग्रही हैं उतना किसी अपराधी के प्रति पुलिस भी नहीं हुआ करती.
वर्तमान में सोशल मीडिया पर यह ट्रेंड मजबूती से अपनी पकड़ बना रहा है जिसमें मुसलमानों को यह सोचने और स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाने लगा है की आपकी संस्कृति, सभ्यता, भाषा और व्यवहार आम नागरिकों से बहुत अलग और दयनीय है. इसमें तथाकथित प्रगतिशील बदलाव की बेहद ज़रूरत है यदि ऐसा नहीं किया गया तो आप की गिनती पुरातनपंथी, दकियानूसी और कठमुल्ले में की जाएगी. यह दबाव की राजनीति न सिर्फ भगवा ब्रिगेड की तरफ से अपितु सोशल मीडिया के कथित वामपंथियों की तरफ से भी हो रही है.
भगवा खेमे में एक लम्बे वक्त से सेक्यूलरवाद को लेकर मिथ्याप्रचार हो रहा है जिसका असर अब कम्युनिस्टों में साफ़ तौर पर देखा जाने लगा है. हाल ही में गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में ‘बहुसंख्यक राजनीति और हिंदुत्व’ पर एक सेमीनार आयोजित किया गया जहां बहुत सारे वक्ताओं में शामिल महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति वीएन राय ने भी अपने विचार रखे. वीएन राय खुद को कम्युनिस्ट कहते हैं और उन्हें कम्युनिस्ट के तौर पर स्वीकार भी किया जाता है. उनका कहना था, ‘वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमला होता है, सबको पता है वह हमला ओसामा ने करवाया था. फिर मुसलमान उसकी आलोचना क्यों नहीं करते. जब कहीं देश में ब्लास्ट होता है तो मुस्लिम लड़के पकड़े जाते हैं. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ऐसे आतंकियों का समर्थन करते हुए इनके पकड़े जाने पर सवाल उठाते हैं. मुंबई ब्लास्ट में बहुत सारे लोग मारे गए और मुसलमान कहते हैं की ब्लास्ट में कोई बड़ी साज़िश की गई थी मुसलमानों को बदनाम करने के लिए.’ इस गोष्ठी में आरएसएस के पूर्व प्रचारक गोविन्दाचार्य भी शामिल थे.
वीएन राय ने यह सब इसलिए कहा क्योंकि उनका मानना था सेक्युलरिज्म के लिए सिर्फ बहुसंख्यकों की आलोचना नहीं होनी चाहिए बल्कि अल्पसंख्यक उभार पर भी चोट करते रहना चाहिए. यहां कई महत्वपूर्ण सवाल उभरते हैं. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले की कई कहानियां हैं, यदि उसके दूसरे पक्षों पर बात कोई करता है तो उसकी आलोचना क्यों की जानी चाहिए. न सिर्फ मुसलमान बल्कि दुनिया भर के चुनिंदा लोग अमेरिका पर हुए हमले की थ्योरी के कई पक्ष से लोगों को रूबरू करवाते रहते हैं.  मुंबई हमले से पहले उग्र हिंदुत्व और देश के भीतर मुसलमानों को निशाना बना कर किए गए हमलों को एटीएस चीफ़ हेमंत करकरे और उनकी टीम ने सबके सामने खोल कर रख दिया. करकरे और उनकी टीम इस हमले में सबसे पहले निशाना बनती है. करकरे की पत्नी ने सरकार से किसी भी तरह की मदद लेने से इंकार करते हुए निष्पक्ष जांच की मांग की थी जिसका आज तक कुछ पता नहीं चला. तो क्या हेमंत करकरे की पत्नी और उनका परिवार धर्मनिरपेक्षिता के लिए ख़तरा बन गया और हम सब उनकी आलोचना करें. राय साहब को शायद पता नहीं है की हर महीने सर्वोच्च अदालत से ऐसे मुस्लिम युवा बरी हो जाते हैं जिन्हें पुलिस ने आतंकवाद के आरोप में दस से पन्द्रह सालों तक जेल में बंद रखा. तो क्या न्यायिक प्रणाली में अपने हक़ के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को फांसी पर चढ़ा देना चाहिए. इन नौजवानों से उनके न्यायिक अधिकार छीन लेने चाहिए क्योंकि बहुसंख्यक कट्टरता के खिलाफ हम हमेशा बोलते लिखते हैं तो हमें अल्पसंख्यकों के खिलाफ भी लिखने बोलने के लिए जगह और ज़मीन चाहिए.
धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण का अर्थ यह नहीं है की हम सही को गलत और गलत को सही कहें. इसका तो सिर्फ इतना मतलब निकलता है की धर्म और जाति या अवसरवादिता के मोह में फंस कर हम पक्षपात न करें.
सेक्यूलर और भगवा खेमे के दबाव का ही असर है की अलीगढ़ मुस्लिम विवि की स्नातक छात्राओं के एक गुट द्वारा उठाए लाइब्रेरी के मुद्दे पर संस्थान की ज़बरदस्त आलोचना की जाने लगी. सोशल मीडिया पर मैंने अजीब ओ गरीब तर्क देखें. एक कम्युनिस्ट साथी के फेसबुक पर वाल पर किसी संघी मित्र ने फोटो पोस्ट की है जिसमे उसने लिखा है, ‘कहां गए वे वामपंथी जिन्होंने आर एस एस दफ्तर के सामने चुम्बन अभियान चलाया था अब वे सब एएमयू के सामने किस आफ लव क्यों नहीं चलाते.’
इस फोटू के दस मिनट के बाद ही उस कम्युनिस्ट साथी के वाल पर यह स्टेट्स आया जिसमे लिखा था, ‘दिल्ली विवि में पोस्ट ग्रेजुएशन में लड़कियों और लड़कों को लाइब्रेरी में जाने की अनुमति है लेकिन एएमयू के महिला कालेज की लड़कियों को मुख्य लाइब्रेरी से दूर रखा गया है.’
वामपंथी साथी ने कितनी धूर्तता और चालाकी से दिल्ली विवि को प्रगतिशील और एएमयू को मध्ययुगीन बना दिया यह सबको दिखा लेकिन किसी ने इस बात का विरोध नहीं किया क्योंकि ऐसा करने से सेक्युलरिज्म का तमगा छीन लिया जाता. संघी साथी की तरफ से जिस तरह की बात लिखी गई वह आम कम्युनिस्टों पर दबाव के लिए ताने के रूप में इस्तेमाल की जाती है जिसके बाद कम्युनिस्ट बिना सोचे समझे कूद पड़ते हैं. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में 18 हजार विद्यार्थी हैं जिसमे से 8 हजार छात्राएं हैं. यह अनुपात किसी भी केन्द्रीय विवि के बराबर या उससे अधिक हो सकता है. 1960 में बनी मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में 2013-14 के मध्य 19 हजार किताबे सिर्फ लड़कियों के नाम जारी की गई.लैंगिक भेदभाव अगर होता तो लड़कियां मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में कैसे प्रवेश करती ?

यहां यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है की अल्पसंख्यक कट्टरता आखिर परिभाषित कैसे होगी. क्या बिना जाने समझे और तथ्यों को अपने हिसाब से तोड़ मरोड़ कर पेश करने के बाद क्या आम मुसलमान, इस तरह की आलोचना को पचा पाएगा. यदि मुस्लिम समाज में परिवर्तन या बुराइयों के प्रति जागरूकता जैसा कुछ करने की किसी ने सोची है आखिर वह क्यों तथ्यहीन प्रमाणों को जनता के सामने रखेगा. एएमयू किसी लड़की का ससुराल या हरियाणा के माँ की कोख नहीं है जहां लड़कियों के साथ अत्याचार हो रहा है. जैसा अधिकार बाकी केन्द्रीय विवि में है ठीक वही नियम कानून और कायदे वहां भी चल रहे हैं. सेक्यूलर बने रहने के लिए एएमयू की आलोचना से नुकसान सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों का होगा. उन्हें आपकी इन बातों के प्रति जवाबदेह होना पड़ जाता है. जोंक जिस्म पर चिपक जाता है तो खुद से नहीं छूटता, उसे निकालना पड़ता है. कथित कम्युनिस्ट, मुसलमानों के साथ जोंक जैसा बर्ताव कर रहे हैं. चिपकते हैं तो खून चूस कर ही मानते हैं. निकालना न निकालना तो बाद की बात है. भगवा सवाल उठाए तो समझ में आता है. लेकिन आपकी बौद्धिकता कहाँ चली गई जो आप भी बह जाते हैं प्रोपगेंडा के साथ.  एएमयू के कुलपति ने अपने उस बयान का खंडन किया है जिसे मीडिया बार बार दिखा रही है कि, ‘लड़कियों के आने से लड़कों की भीड़ बढ़ जाएगी.’ कुलपति का कहना है बातों बातों में यह बात व्यंग के लहजे में निकली थी. कहीं कोई लिखित नोटिस नहीं जारी की गई थी. ज़ुबान कई बार फिसल जाती है कुलपति साहब, लेकिन यूं भी मत फिसल जाने दीजिए की हम पर सवाल उठने लगे. अलीगढ़ मुस्लिम विवि भारतीय शिक्षा प्रणाली के लिए गौरव का सूचक है. इसके स्वर्णिम इतिहास और प्रगतिशील वर्तमान को बचाए रखिए क्योंकि भविष्य में इससे भी बड़े खतरे उठाने पड़ेंगे. यह तो कुछ भी नहीं.

Monday 10 November 2014

सौहार्द के लिए रजिस्ट्रेशन करवाने की ज़रूरत नहीं है.

सौहार्द और भाईचारा न तो जेपी सीमेंट से टाईट होगा और न ही बिरला व्हाईट पुट्टी से जर्जर और छिली हुई तहज़ीब की रंगाई पोताई हो सकती है. सौहार्द का बस इतना सा मतलब है की हिंदू बनाम मुसलमान या फलाने बनाम ढिमकाने के बीच में से ‘बनाम’ या ‘विरूद्ध’ शब्द और इसकी अवधारणा पूरी तरह से निकाल फेंकी जाए.
ऐसा करने के लिए कुछ एन जी ओ काफी हो हल्ला मचाते हैं. असल में स्वार्थ या पैसे से भाईचारा और सौहार्द जैसे सूफी और फ़कीरी कांसेप्ट कभी नहीं आ सकते. हमारे यहां सांप्रदायिक सौहार्द के लिए अवार्ड दिए जाते हैं. मंच सजता है, लोग जुटते हैं. फिर से मंच सजेगा. लोग जुटेंगे. ये वही लोग हैं जो इससे पहले एक जगह इकट्ठे हुए थे. इस जुटान में कोई नया नहीं है. दस थे तो दस ही रहेंगे. क्योंकि सीमित संसाधन से असीमित समस्याओं का हाल कभी नहीं निकाला जा सकता.
भाईचारे और सौहार्द के लिए रजिस्ट्रेशन होगा.बस्ता,किताब,कापी कलम दी जाएगी. सब कुछ होगा बस उस मलंग की कमी होगी जो संत बन कर लोगों की भीड़ में गुम हो जाए. यहां अब कोई गुम नहीं होना चाहता. सबको फ्रंट पेज पर फोटू और ढेर सारा पैसा चाहिए. मैं ये नहीं कह रहा हूं की इस तरह की संस्थाएं बिल्कुल नकारा हैं लेकिन यह भी दर्ज किया जाए की इस तरह की संस्थाओं से सौहार्द या प्रेम जनता तक नहीं पहुँच पाता.
प्रेम सबको चाहिए. भारत एक प्रेम प्रधान देश है. यहां कपटी से क्रूर व्यक्ति भी हृदय से दो प्रतिशत कोमल होता है. इस कोमलता को जो भुला चुके हैं उन्हें याद करवाने के लिए कहीं रजिस्ट्रेशन करवाने की ज़रूरत नहीं है. बात कीजिए. समझाइए. बेहतर समाज का निर्माण हिंसा या आरोप प्रत्यारोप से नहीं हो सकता. सोशल मीडिया पर हर तरफ लूट मार का माहौल है. यहां जो जिस मंतव्य से आया है वह वही करेगा. बहुत से लोग आपस में झगड़ा करते हैं. बहुत से लोग एक दूसरे के धर्म को गालियाँ बकते हैं. किसी को समझ ही नहीं आ रहा है वो क्या कर रहा है. या फिर हो सकता है समझ बूझ कर लोग ऐसा कर रहे हों. जो समझदार हैं, तर्क और तथ्य को साथ रखते हैं उनका बहकना थोड़ा मुश्किल है पर देखा अमूमन यह जाता है की वे भी गले तक धंसे हुए हैं बेवजह की प्रतिस्पर्धा में. कुछ लोग मुझे यू ट्यूब के वीडियो भेज कर कहते हैं ये देखिए, यही सच है. मैं ऐसे लोगों का मैसेज पढ़ कर जवाब नहीं देता. जिन्होंने सूचना के इस बेछुट माध्यम पर भरोसा करने का मन बना लिया है वे घाटे में रहेंगे. अच्छा कुछ नहीं हो रहा है. सौहार्द और अमन के लिए कई मोर्चों पर साथ आने की ज़रूरत है. सौहार्द के लिए दिन रात एक कर देने वाले लोग कहते हैं ‘मोर्चों पर लड़ने की ज़रूरत है.’ किससे लड़ना है? लड़ कर जीतना चाहते हैं? तब तो कोई एक ही रहेगा. हारने वाला या जीतने वाला. कुछ ऐसा कीजिए की दोनों रहें और बेहतर बात के लिए रहें.

किसी भी तरह का कट्टरवादी इंसान किस हद तक कट्टर होगा. जान ले लेगा. ले लेने दीजिए. लेकिन जान लेने से पहले तो थोड़ा सा मौका देगा. बस उसी लम्हे में आप उसको भाईचारा जिसके बिना भारत का तसव्वुर नहीं किया जा सकता की बात कीजिए. बहुत समय है. लोग सुनेंगे. भड़काने के बजाए ठंडा कीजिए. व्यक्तिगत तौर पर खुद को ऐसा बनाइये की किसी को नुकसान न पहुंचे. तभी लोग साथ आयेंगे. लोगों का साथ आना ज़रूरी है. बेहद ज़रूरी.

Friday 3 October 2014

बालीवुड के राष्ट्रवादी सिनेमाई चरित्र को ललकारता है हैदर

आपने कश्मीर को सनी देओल की फिल्मों में देखा है तो इस बार इरफ़ान,तब्बू,शाहिद,श्रद्धा और के के मेनन की फिल्म ‘हैदर’ में देख आना बहुत ज़रूरी हो जाता है. कश्मीर और कश्मीरियत अपने वजूद के वक्त से लगातार जिन संघर्षों के दौर से गुजर कर, टूट कर, लड़खड़ा कर फिर से उठ खड़ी, चल पड़ी होती है उस तरह का उदाहरण इतिहास में कहीं और नहीं मिलता.
मैंने पचास की उम्र पार किए लोगों की पीठ पर ‘गो इंडिया गो बैक’ के नारे लगाने की एवज में डंडो और तारों के ऐसे निशान देखें हैं जिसे दिखाने की एक ईमानदार कोशिश विशाल भारद्वाज ने फिल्म में की है. आज़ादी की अपनी तरह की यह लड़ाई कब हिंसक रूप अख्तियार कर बैठी इसका पता तब चला जब घाटी की बहुत सी औरतें आधी विधवा कहलाई जाने लगी. सरहद के उस पार से बरगलाने और इस ओर से तड़पाने का जो सिलसिला अस्सी और नब्बे के मध्य से शुरू हुआ वह ख़त्म होते होते ऐसे दर्द छोड़ गया जिससे उभरने में हजारों लाखों कश्मीरी तबाह हो गए.
हैदर, भारतीय सिनेमा के वर्तमान और इतिहास के अद्भुत राजनीतिक सच्चाई के बतौर दर्ज़ किया जाएगा.
मैं हूं की मैं नहीं हूं. जैसा चुभता सवाल दोनों ओर उछाला जाता है.इस तरह के सवाल से न तो दिल्ली सहज हो पाती है और न ही इस्लामाबाद. लेकिन यह सवाल तो वहां का अंतिम सच है जिसे हम किसी राष्ट्रवाद की केतली में चाय के तौर पर उड़ेल, चुस्की के बतौर नहीं ले सकते और न तो जेहाद के नाम पर इसकी चुभन को कम कर सकते हैं. स्वाद तो इसका कहवा जैसा ही रहेगा. तासीर भी झनझनाहट और झकझोरने जैसी होगी.
हैदर की कहानी भ्रम, भरोसा से आगे निकलते हुए इंतक़ाम के उन अनछुए पहलुओं से रूबरू करवाती है जिसमे एक अलीगड़ियन कश्मीरी अपने अब्बू, मोजी, चचा, महबूबा, मुजाहिदीन और फौज के बीच के फर्क को खोजते हुए खो जाता है. सब कुछ में इतना मेल नज़र आता है की वह हैरानी के चरम पर पहुँच कर जो हो रहा है उसमे बहता चला जाता है. लकड़ी के बने घरों पर ग्रेनेड दाग कर जो दाग हुकूमतों ने कश्मीरियों को लगाएं उसका साफ़ असर आज़ादी की उस मांग के कमज़ोर हो जाने में दिखाई देने लगी है जिसमे खुर्रम नज़र आता है.
रिश्तों को सहेजने और उसे बचाने के लिए निकले हैदर ने आखिर वक्त आते आते उन सभी रिश्तों को खुद से इतनी दूर चले जाने दिया जहां से दुबारा लौट आने की उम्मीद न के बराबर होती है. कश्मीर का नौजवान फिलहाल तो उस दौर से निकल आने की बात करता है लेकिन इंतक़ाम की टीस उनके भीतर कहीं न कहीं होती ही है. फिलहाल कश्मीर मिलिटेंसी के भयानक समय से निकल आया है लेकिन आफस्पा की शक्ल में चूतस्पा आज भी कश्मीरियों को अपने घरों से बाहर निकलने पर कश्मीरी होने की बर्बर सज़ा दे रहा है. विशाल ने ‘हैदर’ बनाई है वह भले ही प्रासंगिक और सामयिक न हो पर इतिहास की सच्ची अदायगी ज़रुर कही जा सकती है और बहुत हद तक उसने 'कश्मीर का क्या होगा' जैसे सवाल ज़िंदा कर दिए हैं हम सबके सामने.
भारत माता की जय, कश्मीर में कैसे उगलवाया जाता है, उससे आप यह अनुमान लगा सकते हैं की कश्मीरी अपनी पहचान के लिए कितने गंभीर हैं. उनकी लड़ाई उनका अपना राष्ट्रवाद है.
हैदर मीर और अर्शिया लोन , साभार -गूगल इमेज 
शाहिद कपूर और तब्बू - गूगल इमेज 
बशारत पीर ने जो लिखा है वह मिटाया नहीं जा सकता पर सेंसर बोर्ड ने काफी कुछ मिटाते हुए फिल्म को इजाज़त दे ही दी. फैज़ और गुलज़ार की रूहानी अलफ़ाज़ अदायगी ऐसा लगता है की फज़िर की नमाज़ के बाद आर्मी कैम्प में कैद किए गए कश्मीरी और डल लेक के ऊपर से बह कर आती हवाओं के बीच एक दूसरी के गम को बांट लेने और दर्द को सुन लेने की होड़ सी मची हो. पूरी फिल्म ही दर्द की ऐसी बारिश नज़र आती है जिससे बचने की कोशिश हम भले ही कितनी कर लें लेकिन बहे बिना नहीं रह सकते.
नरेंद्र झा अगर डॉ हिलाल मीर न बने होते तो वो गुम भी न होते और न रूहदार(इरफ़ान खान) से आर्मी कैम्प में उनकी मुलाक़ात होती. रूहदार ने इंतक़ाम का जो पैगाम अर्शिया(श्रद्धा कपूर) के हाथों हैदर(शाहिद कपूर) तक भिजवाया था उस पैगाम ने फिल्म की सारी कहानी का रुख तय कर दिया. गज़ाला मीर( तब्बू) पर इल्ज़ाम लगाया भी जाए तो आखिर कैसे और किन वजहों से. उस रात खुर्रम (के.के. मेनन) को फोन करके डॉ साहब और मिलिटेंट वाली बात बताने के लिए. पर गज़ाला को तो यह पहले ही नापसंद था, की कोई सब कुछ को दांव पर लगा कर, कैसी आज़ादी पाना चाहता है. गज़ाला उस किरदार की पूरी अदायगी है जहां बिस्तर, बाकी हर चीज़ से पहले की बात होती है. खुर्रम से गज़ाला इश्क़ करती थी या नहीं, यह तो नहीं मालूम पर इतना तो कहा जा सकता है कि इश्क़ के कई तेवर होते हैं, उसका रंग बिल्कुल वैसा नहीं होता जैसा हम देख रहे होते हैं. कुछ सेक्स भी होता है जहां इश्क़ होता है. कुछ लोग उसे देखते हैं लेकिन उस पर ज्यादा गौर ओ फ़िक्र नहीं करते. हैदर में बिल्कुल वही है. बहुत कुछ देख कर भी आप बहुत कुछ नहीं देख पाएंगे. दिखाई दे जाए वह इश्क़ कहां रह गया फिर. माँ के तौर पर गज़ाला जहां पूरी तरह डूबी वहीँ आखिर आते आते माशूका और बीवी के लिहाफ को उतार फेका.
खुर्रम ने डॉ साहब को फौज के हवाले करवा कर गज़ाला की उन मुश्किलों को ज़रूर आसान बनाया था जिससे वह नतीज़े के बारे में सोचे बिना फैसले ले सके. हैदर अपने अब्बू की कब्र तक तो पहुँच चुका था पर उसने अपनी माँ खो दी थी. एक मुर्दा के लिए हैदर का जुनून और जद्दोजहद कमाल का है, क्योंकि उसमे जिंदा लोगों से इंतकाम छुपा है. अर्शिया अपने बाप के क़ातिल से भला कैसे मोहब्बत करती जिस बाप ने उसे जल्लाद भाई की पाबंदियों से आज़ाद रहने की छूट दी थी उसका कत्ल हो चूका था,अंजाने में ही सही हैदर से यह जुर्म हो चूका था.
हाथ से बुना मफ़लर कंधों और ज़मीन से होता हुआ अर्शिया के बदन पर खुला पड़ा था और एक राजनीतिक कहानी का अंत मोहब्बत और रिश्तों की उन अबूझ पहेलियों में समा जाता है जहां खुर्रम की कटी टांगों, गज़ाला के उधड़े जिस्म, डॉ साहब की तस्वीर और अर्शिया की कफ़न में लिपटी लाश पड़ी होती है. हैदर कहीं खो जाता है. 

Thursday 10 July 2014

हमने अपने बीच कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा -2

स्वेताम्बरा,
मुझे नहीं पता की हमारे बीच जो था वह प्रेम था या कुछ और लेकिन मुझे इतना पता है की वह जो भी था एक बेहतरीन एहसास था. जिसकी याद मेरे मन में आज भी वैसे ही जीवित है जैसे उन दिनों थी जब हम एक दूसरे का हाथ पकड़ कर शिमला की ऊँची नीची और ढलान भरी सड़कों से गुजरा करते थे. 
मैं तुम्हे ख़त लिख रहा हूं इसे किसी भी तरह के प्रेम पत्र या फिर से वापस आ जाने की विनती के तौर पर न लेना क्योंकि जीवन के और हमारे रिश्ते की सारी सच्चाइयों से अब मैं रूबरू हो चुका हूं. तुमसे बिछड़ने या तुम्हे खुद से अलग करने का न तो मेरा मन था न ही ऐसा कभी सोचा था पर जाने अनजाने में वह सब होता गया जो न तुम्हे पसंद था, और अब वह मुझे भी पसंद नहीं. इस बात को समझने में मैंने बहुत देर कर दी और तुम मुझसे कोसो दूर चली गई. इस सच को मैंने तब नहीं स्वीकारा था की मैं कहीं न कहीं से गलत हूं जब तुम मेरे साथ रह कर मुझसे समझाया करती थी ,पर जैसे ही तुम मुझसे दूर गई ,तुम्हारी कमी ने मुझे रिश्ते के इस पहलु की तरफ गौर करने का मौका दिया. 
अपने भीतर के इस साकारत्मक बदलाव से मैं खुश होता हूं पर जैसे ही तुम्हारा ख्याल आता है यह ख़ुशी कहीं खो सी जाती है क्योंकि अब तुम नहीं हो मेरे पास जो यह देख सके कि दीपक बिल्कुल वैसा बन गया है जैसा तुम दीपक को देखना चाहती थी. तुम्हारी समझ और तुम्हारी बातों को मैं अपने आस पास रहने वाले लोगों के मुकाबले हमेशा कम वजन देता था ,और इस बात को स्वीकार लेने में मुझे तनिक भी अफ़सोस नहीं, क्योंकि यही सच्चाई है और सच बोलने से अब न तो मुझे वे सारे दिन वापस मिल जाएंगे और न तो मेरे हालात पहले जैसे हो जाएंगे. पर कहीं भीतर एक उम्मीद आज भी ज़िंदा है की मुझ जैसे छोटे शहर और कसबे से आने वाले लड़के को तुमने इतने मौके दिए पर मैंने ही उसे गंवा दिए. तब मुझे तुम्हारी कमी का एहसास नहीं था पर अब जब मैं गुड़गांव जैसे बंजर और खाली शहर में सब कुछ होते हुए भी अधुरा महसूस करता हूं तो लगता है ये अधूरापन तुम्ही हो ,यह तुमसे ही भरा जा सकता है.
क्या एक अंतिम मौक़ा मुझे नहीं दिया जा सकता स्वेताम्बरा ? न सही प्रेमी के रूप में ,दोस्त की शक्ल में ही सही ,ताकि तुमसे बातें कर सकूं ,तुम्हे बता सकूं की दिन भर क्या बीती मुझ पर और रात को कैसे नींद आँखों से दूर रही ,ताकि बता सकूं की आज मैंने इस रंग की शर्ट पहनी है और पूछ सकूं की बताओ स्वेताम्बर इस पर कौन सी पेंट पहनू, क्या एक आखिर मौका मुझे इसलिए नहीं मिल सकता क्योंकि मैंने तुम्हारा दिल दुखाया ,तो जो मुझ पर बीती उसका क्या ? चलो जाने दो ,वो तो मेरी ही वजह और मेरी ही गलतियों का परिणाम था जो मैं अकेला हुआ पर आज ही नहीं बल्कि बिछड़े हुए दिन से मैं वापस आना चाहता हूं तुम्हारे पास .
बहुत जाहिर सी बात है की जब हम प्रेम में होते हैं तो प्रेम की अहमियत नहीं मालूम चलती पर जैसे ही उस प्रेम से दूर होते हैं वैसे ही उसका असर हमारे मन से लेकर हर एक कार्य तक में दिखने लगता है. 
पता है स्वेताम्बरा ,मैं आज भी तुम्हारी फेसबुक की टाइमलाइन को निहारता हूं और खोजता हूं की मैं उसमे कहाँ हूं ,और यकीन मानों ,मैं हमेशा उसमे खुद को पाता हूं ,मुझे पता है न तुम मुझे भुला पाई हो न तो मैं ,फिर जीवन को ऐसे क्यों जिया जाए ? न तो मेरी तरफ से अब कोई शर्त होगी न ही कोई दबाव ,न तो मैं ये कहूंगा की तुम मेरी बन कर रहो ,पर इतना तो हो सकता है की हम बात कर सके . मुझे उम्मीद है की मेरी इस बात पर तुम गौर करोगी ,तुम्हारा जवाब न भी मिला तो मैं हमेशा इंतज़ार करूँगा.
इंतज़ार ही क्यों करना ,क्यों न हम बात करें ,मैं पहल करूँगा ,बस तुम मेरा फोन उठा लेना. मैं चाहता हूं की तुम अपनी ज़िंदगी में तरक्की करो और नई कामयाबी हासिल करो ,लोग तुम्हे अच्छे मिले और तुम हमेशा खुश रहो ,एक दोस्त इसके आलावा कोई और दुआ दे भी नहीं सकता, मैं खुशनसीब होऊंगा अगर मुझे तुम्हारी दोस्ती में छोटी सी जगह मिल जाए तो ,हां जहां तक प्रेम की बात है तो उसकी परवाह तुम न करना ,मेरा प्रेम तुम्हे कभी किसी परेशानी में नहीं डालेगा ,यही एक वादा तुमसे करना है,अब फिर वैसे हालात नहीं बनेंगे जैसे पहले कभी बन गए थे.
जब तक तुम इसे पढ़ रही होगी तब तक मैं खुद को फिर उन्ही पुरानी यादों में ले जाऊंगा और जैसे ही तुम इसे पढ़ चुकी होगी मैं तुमसे बात करूँगा ,क्योंकि दोस्ती और प्रेम में गुस्सा करके हम सिर्फ समय गंवाते हैं ,खुशियाँ खो देते हैं ,हासिल सिर्फ आंसू होते हैं ,मुस्कराहट नहीं.
तुम्हारा दोस्त और तुम्हारी यादों से मोहब्बत करने वाला,


दीपक 

Monday 16 June 2014

हमने अपने बीच कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा-1

हमने अपने बीच कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा जिससे किसी नई कहानी की शुरुआत या बीते हुए की याद आ सके. मैं कमज़ोर था और उसका बार बार रोकना, बात करने की मिन्नतें करना मेरे प्रेम की परिधि से बहुत बाहर था. मैं चाहता था की मेरी अपनी गढ़ी गई प्रेम परिभाषाओं में वह शामिल हो जाए और उसका मानना था की हम उन बावले से ख्यालों  और रेखा के भीतर क्यों जिए. ऐसा नहीं है की वह रिवोल्यूशनरी प्रेमिका थी पर उसकी अपनी जीवन कहानियाँ थी जिसमे एक समय में  मैं समाहित हुआ तो उसे लगा यही है जो पार ले जाएगा पर जैसे जैसे समय बीतता गया उसे प्रेम की कसावट महसूस होने लगी. प्रेम एक समय के बाद या तो बिल्कुल निष्क्रिय हो जाता है या फिर आक्रमणकारी. कुछ लोगों का कहना है की प्रेम निस्वार्थ और पवित्र होता है उसमे किसी की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना नहीं शामिल होता, लेकिन ये सिर्फ कहने और लिखने की बाते हुआ करती हैं,क्योंकि इन्हें पढ़ कर हमें अच्छा लगता है और इसलिए हमारा मन हमेशा से सर्वश्रेष्ठ की तलाश में होता है ऐसे में वह कई बार ही नहीं बल्कि हर बार जीवन की सच्चाइयों पर पर्दा डाल कर जादुई और कभी न दोहराई गई कहानियों को जीने लगता है.  
पर्दे पर पड़ी लाईट और दिवार पर लगे स्पीकर की तरह प्रेम कहानियां नहीं हुआ करती, सब कुछ तय वहां होता है जहां किसी के निर्देशन में कुछ घंटे की एक फिल्म बन रही हो और वह अपने हिसाब से उसमे उतार चढ़ाव देता हुआ एक सुखद अंत की तरफ दर्शकों को खींच ले जाता है. हम अपनी स्वतंत्रता के पक्षधर होते हैं पर किसी दूसरे की नहीं, जिससे मन लग जाता है तो जी करता है उसका मन मेरे मन से जुड़ जाए या फिर बहुत आगे सोचा तो उसके मन का रिमोट अपने हाथ में लेने की हर सही और गलत कोशिश कर डालते हैं.
हर प्रेम का एक अंत होता है, कुछ का नहीं भी होता होगा लेकिन ज्यादातर प्रेम कहानियों का अंत शायद ऐसे ही हुआ होगा जैसे हमारा हुआ था. वह रोक रही थी और मैं चाहते हुए भी नहीं रुक रहा था क्योंकि उससे दूरी बननी ही थी यह उसे भी मालूम था, रिश्ते ज्यादा बिगड़ते उससे पहले उसमें से निकल आना ज्यादा सही लगा मुझे. अब मैं उभर रहा हूं, शायद किसी नई कहानी के इंतज़ार में जो बिल्कुल ऐसी ही होगी जैसे अभी अभी गुजरी.
प्रेम या तो होता है या फिर नहीं होता, इसका न होना कई बार असहज कर देता है लेकिन इसका होना भी बहुत बेहतरीन नहीं होता. प्रेम के शुरूआती दौर में पुरुष, स्त्री के मन के हिसाब से उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास करता हुआ दिखता है ताकि नुकीले मोड़ जल्दी से पार कर जाए परन्तु जैसे ही स्त्री के मन और शरीर पर उसका अधिपत्य जम जाता है वैसे ही वह हर छोटे बड़े मौकों पर रोक टोक और हां न की इबारत लिखने लगता है. क्या यही प्रेम है, जहां किसी दूसरे की ज़िंदगी के पहिए को कोई दूसरा अपने हिसाब से गति प्रदान करने की बात करे, जहां गति होगी वहीं ठहराव भी होगा, तो क्या जिसे हम चलते रहने का नाम दे रहे थे वह असल में एक तरह का रुकना था. हां शायद .
मैं या आप सिर्फ अपने मन के मालिक हुआ करते हैं, ऐसे में हम जो सोचते हैं, करते हैं वह निसंदेह हमारा मौलिक फैसला हुआ करता है तो यह फैसला किसी दूसरे के जीवन के आयाम भला तय कैसे करता होगा, यह न तो मैं सोच पाया न ही वह, शायद हम प्रेम में थे इसलिए. अब जब इससे निकल आएं हैं तो सुकून की सांस महसूस होती है पर वह बुरा भी तो नहीं था जो भी था. हम एक दूसरे का ख्याल ही तो रख रहे थे, क्या यह बात हम दोनों स्वीकार करेंगे अगर करते हैं तो फिर ख्याल रखना बिखराव की नियति कैसे बन गई, शायद हम उस दौरान ख्याल से ज्यादा एक दूसरे की ज़िंदगी में दखल देने लग गए थे. न उसे बंधना पसंद था न मुझे, मैंने बांधा कब था, या फिर उसने तो ऐसा कभी भूल कर भी नहीं किया फिर आज़ाद या आजादी का सवाल हमारे बीच कहाँ से आ गया, नहीं नहीं ...हमें जाना था एक दूसरे से दूर, अंत यही था जो हमारे वर्तमान को लील गया, जो हमारी कहानी के पूर्ण होने से पहले अधूरा छोड़ गया. पर यह अंत भला कतई नहीं था क्योंकि हमें साथ रहना था एक दूसरे का दोस्त बन कर, बेनाम से रिश्ते के लिए, मैंने कोशिश नहीं की और उसने यह सोचा की लौटेगा ज़रूर. मैं भी उसके लौटने का इंतज़ार करता रहा और वह भी. लेकिन हम दोनों ने एक दूसरे को इसका एहसास नहीं होने दिया की हम बेसब्रों की तरह एक दूसरे की ताक में बैठे हैं कि कोई कहीं से नज़र भर आ जाए और थाम लें हाथ.

चलो ,कोई बात नहीं मैं तुम्हे उस भीड़ में तलाशूंगा जहां पहली दफा नाराज़ हो कर साथ छोड़ा था और तुम खोजने आई थी, हर बार अच्छे मौके तुम उड़ा ले जाती हो इस बार ये मौका अपने से दूर नहीं जाने दूंगा बस तुम आना उस भीड़ में.

Monday 26 May 2014

इस उम्मीद के साथ की ख़ामोशी पढ़ लें एक दूसरे की.

किसी ख्वाब के देखने और उसके पूरे होने में वक्त अगर कम खर्च हो तो लगता है ज़िंदगी खूबसूरत है. हम या आप या फिर कोई और जिसने अपनी ज़िंदगी में सोते जागते ख्वाब देखें और अगले ही पल उन्हें पूरा भी कर डाला. इन हालात में सपने देखने का काम सबसे उम्दा और बेहतरीन लगने लगता है. हमारी दोस्ती भी किसी ख्वाब से कम नहीं और उसमे होने वाले उतार चढ़ाव उन हिंदी फिल्मों की स्क्रिप्ट सरीखें हैं जहां एक ही उम्र के कुछ नौजवान लिखी लिखाई कहानी पर पूरे दो घंटे बिता देते हैं. उसमे एक प्यारी सी शुरुआत होती ,थोड़ा सा अप्स एंड डाउंस ,कलाइमेक्स में लड़ाई झगड़े,रूठना-मनाना और फिर आखिर में हैप्पी एंडिंग. पर यहां आखिर जैसा कोई मामला नहीं ,हमने मिल कर तय किया है कि जो हमसे पहले के लोग हमारी ज़िंदगियों में आएं और इस वादे के साथ फिर कभी वापस नहीं आएं कि ‘हम हमेशा साथ रहेंगे’ से बिल्कुल अलग कहानी लिखेंगे. हमारे आस पास या फिर हमारे साथ होने वाली घटनाएं हमेशा के लिए एक सबक दे जाती हैं. बचपन की नर्सरी क्लास में मिली तबस्सुम हो या फिर जावेद,आज वो जाने कहाँ हैं मुझे या उन्हें भी नहीं मालूम पर मैंने उन्हें अपना सबसे अच्छा दोस्त माना था और कहा भी था की ये दोस्ती कभी खत्म नहीं होगी. ठीक यही वादा शायद सातवी दर्जे में पहुंचने के बाद अतुल से किया था ,आपने भी किसी न किसी से किया ही होगा, न सही नर्सरी या सातवीं क्लास में, लेकिन कोई तो रहा ही होगा, खेल के मैदान पर साथ खेलने वाला, ट्यूशन पढ़ने वाला, टिफिन शेयर करने वाला या फिर वो लड़की जो रिक्शे में ठीक बगल बैठा करती थी और ट्राली जब किसी उंचाई वाली जगह पर पहुँचती ,तो उसके बदले ट्राली को धक्का लगाने का जी चाहता. हां, मैं उन्ही भुला दिया गये चेहरों की बात कर रहा हूं जिनसे दूर जाने का कभी मन था ही नहीं पर हालात ने चीजों को यूँ बुना की सब दूर होते गये यहां तक की ट्वेल्थ और ग्रेजुएशन के वे दोस्त भी जो बिना हमारे कालेज नहीं जाते थे. ये ज़िंदगी है ही ऐसी, चाह कर भी लोग साथ नहीं रह पाते. अलग अलग शहरों में हमारी या उनकी ज़रूरतें उनका इंतज़ार करती हैं, देश कहां इतनी तरक्की कर पाया है की सब को एक ही जगह खाने और रहने का ठिकाना दे सके.
खैर, बात थी दोस्ती की और दोस्ती में किये वायदों पर मैं न तो भरोसा करता हूं और न ही किसी को अपने वादे की डोर में बांधना पसंद करता हूं,वो क्या है न इनके टूटने पर हम जैसे लोग टूट जाते हैं.
अंकिता और नम्रता से हमेशा साथ रहने की कोई कसम नहीं ली है और न तो अंकिता ने मुझसे. लेकिन धीरे धीरे एक साल होने को हैं वो भी अलग-अलग शहरों में रहते हुए,अलग ज़रूरतों और ख़्वाबों के होते हुए हम बिल्कुल अलग नहीं हैं. मेरी नाराज़गी और मेरी ख़ामोशी यहां तक की मेरी हर ऐसी वैसी बात जिसे कोई और न सुन सके वो इन दोनों को सुनाता हूं, तो ये भी कौन सा मुझसे कम हैं, रात को जागने वाली अंकिता और मेरे जैसे वक्त पर सो जाने वाली नम्रता भले एक दूसरे से अलग हों पर एक ऐसी जगह भी होती है जहाँ हर बात मिल कर एक हो जाती है और वह है बिना किसी शर्तों और वायदे वाली दोस्ती. अंकिता कहे चाहे जो कुछ, पर वो ये कहना नहीं भूलती, की मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं,और यह बोलते वक्त वह भूल जाती है की उसकी आवाज़ में जो एक खालीपन है वो शायद मैं पहचान लेता हूं इसलिए उसकी अनकही उम्मीद बनने की पूरी कोशिश भी करता हूं.
हम कसम और उन कसमों को निभाने में तनिक भी यकीन नहीं रखते और ऐसा इसलिए नहीं है की हमारे ह्रदय कठोर हैं या फिर हमें दुनिया का अंतिम सच मालूम चल गया है ,यह सिर्फ इसलिए है कि समय और हालात चीजों को बनाते और बिगाड़ते हैं और ऐसे में किया गया कोई एक वायदा भी टूट गया तो हमारा बच पाना मुश्किल होगा. जरा सी दूरी को बहुत दूर बताने और बताते वक्त के अंदाज़ से डराने वाली अंकिता को उसकी पहली नौकरी वाकई बहुत दूर मिल गई,नम्रता तो उतनी दूरी हर रोज़ यूँही घूमते हुए निकाल देती है. तुम दोनों से सिर्फ इतना कहना है कि मैं रहूँ या न रहूँ, अपने उन ख़्वाबों को ज़रूर पूरा करना जो देखें हैं. और ये मैं अच्छे से जानता हूं कि अंकिता ,तुमसे हर वो चीज़ हो जाएगी जिसके बारे में तुम एक बार सोच लेती हो.

मेरे हिस्से में तुम दोनों की दोस्ती है मैं उतने में ही खुश हूं, अगर कभी नाराज़ हो जाया करूं तो समझा करो डोज थोड़ा हाई करने की ज़रूरत है,बस और क्या ....बाकी सब कुछ लिख कर बयान कर दूंगा तो ख़ुशी के मारे बेहोश हो जाओगी इसलिए बस इतना ही ..

Thursday 20 March 2014

इंक़लाबी लोगों का कहना है कि गुजरात में तरक्की हुई ही नहीं.

हिन्दुस्तान में सियासी जमातों की आमद का महीना गर्मियों में शुरू होता है. राजनीति की पिच इतनी सरगर्म हो जाती है कि उस पर दौड़ने वाले लोग जिस्मानी और अक्ली तौर पर अपना तवाजुन खो देते हैं. बनारस का हाल तो और भी खतरनाक मोड़ पर है. वहां देश के जाने माने सियासतदां जनाब नरेंद्र मोदी की तरफ से हुंकार भरी गई है. गौरतलब है कि जनाब मोदी को हिन्दुस्तान के मुसलमान पसंद नहीं करते ,वजह 2002 के गुजरात दंगों को बताया जाता है. अप्रैल के महीने में जहां देश भर की अवाम गोवा,कश्मीर और दीगर ठंडी जगहों पर जा कर होलीडे मनाती है वहीँ नेता गलियों और चौराहों की ख़ाक छानते हैं.
सुनने में आया है की आम आदमी पार्टी के नाम से बनी एक सियासी जमात के अमीर जनाब अरविन्द केजरीवाल भी काशी से अपना परचा भरना चाहते हैं लेकिन हमेशा की तरह वे इस बाबत अवाम में रायशुमारी करवाना चाहते हैं.वहीँ देश को पिछले दस सालों से संभालने वाली कांग्रेस पार्टी के दिग्गज और ट्विटर पर मौजूद रहने वाले जनाब दिग्विजय सिंह जी भी मोदी से लड़ने को हामी भर चुके हैं. ऐसे में मुक़ाबला बेहद दिलचस्प हो जाता है अगर आलाकमान राजा की बात मानते हुए उन्हें टिकट दे देती है तो.

बनारस के लोग बनारस में रह कर ही तिजारत करते हैं इसलिए उनकी तहज़ीब में मिलावट नहीं आ पाई है,वरना हिंदोस्तान के ज्यादातर शहरों में मिलावट कायदे से हो चुकी है. मिलावट कई तरह की होती है ,कहीं उसे अच्छा समझा जाता है तो कहीं ख़राब. बनारस के हालिया माहौल पर नज़र डालें तो लोग गुजरात माडल की तरफदारी करते नहीं थकते. इसके लिए बनारस वालों को मीडिया का शुक्रगुजार होना चाहिए कि इतने जमाने से गुजरात भारत का हिस्सा है और उन्हें अब जा कर इसका एहसास हुआ. गुजरात के रहने वाले कुछ बाशिंदे अब अपनी ईमेल और फेसबुक अकाउंट में ‘द ग्रेट हिंदुत्वा स्टेट गुजरात’ लिखने लगे हैं लिहाजा बनारस वालों की खुशियों जल्द ही मातम में बदल जाएंगी जब गुजरात उन्हें अपना मानने से इंकार कर देगा. अभी बनारस में रहने वालों को इस बात का इल्म नहीं हुआ है कि उन्हें पिछले 65 साल से ढगा जा रहा था उसका सिलसिला यूंही आगे बदस्तूर जारी रहेगा. हिंदी ज़ुबान के मशहूर लेखक काशीनाथ सिंह ने मोदी के आने पर बनारस की तरक्की हो जाने की बात कही है ,ऐसा हो जाएगा या नहीं इसका कयास लगाना जून महीने में बारिश हो जाएगी या नहीं के जैसा है. लेकिन इस बात को कतई नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि बनारस की एक बड़ी अवाम तरक्की के मुद्दे पर जनाब नरेंद्र मोदी के साथ खड़ी है. इंक़लाबी लोगों का  कहना है कि गुजरात में तरक्की हुई ही नहीं है ,एक नौजवान मुजाहिद ने तो यहाँ तक कह डाला की एक रुपए के काम को एक हजार रुपए खर्च कर मुनादी करवाने में ये लोग माहिर हैं. फिलहाल विकिलीक्स ने भी बता दिया कि मोदी और उनकी जमात हिन्दुस्तान में अवाम को अँधेरे में रख कर हुकूमत में आना चाहते हैं. पूरी दुनिया में इस बात की चर्चा शुरू हो गई कि हिन्दुस्तान में इलेक्शन के दरम्यान लोग कितना झूठ बोलते हैं. मुसलमानों को आज़ादी के वक्त यहाँ ठहर जाने की बात कहने वाले गांधी जी को भी बहुत से लोग इस चुनाव में घसीट चुके हैं तो दूसरी तरफ हैदराबाद में निज़ाम को घुंटने टेकने पर मजबूर करने वाले सरदार पटेल की याद और मोदी की कयादत में मूर्ति बनवाने की बात भी चली. इन दोनों जज्बाती हिस्से में लोगों के खूब जोर शोर से अपनी खिदमत फ़राहम करवाई. एक मर्तबा ऐसे ही लाखों करोड़ो लोगों ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के वक्त सब कुछ भुला कर खिदमत पेश की थी लेकिन अफ़सोस उससे कुछ ख़ास हासिल नहीं हो सका. दुनिया में यही एक अलहदा मुल्क है जहां वादे इसलिए किए जाते हैं ताकि उन्हें पूरा न किया जा सके. लोहा सबने दिया पर वो गया कहां किसी ने नहीं पूछा ,अरे कम से कम मंदिर के नाम पर दिए गए दान के बारे में तो पूछताछ कर ही सकते हैं आप ,या ये भी नहीं होगा. बनारस में बिना किसी ख़ास मुद्दे के लोग आपस में लड़ रहे हैं,अभी तक न तो लैपटाप का वादा हुआ न ही अनाज का और न तो स्विस बैंक से पैसा वापस लाने का. नेता ऊपर से वादे थोप देता है और अवाम उसे अपना वादा समझ कर निभाने का इंतज़ार करती है. सड़क टूट गई है ,इस बार दरिया-ए-गंगा ने बनारस के भीतर तक लोगों को स्नान करवाया. लोग कई हफ़्तों तक घरों के दरवाज़े बंद कर छत पर महफूज़ बने रहे थे. इन हालात में बिना प्रैक्टिस के बनारस से परचा भरने वालों को अगर वहां जीत मिल जाती है तो जिस्म और दिमाग का माहौल इस मर्तबा अवाम का बिगड़ने वाला है नेता का नहीं.

Friday 14 March 2014

यहां तो सब मुस्कुरा कर मिलते हैं पर बताते नहीं कि क्यों मुस्कुरा रहे हैं

कृष्ण चन्द्र  हलवाई जिन्हें भाषा की देसज रूप का नुकसान उठाना पड़ता था यह सुन कर की 'क्री चंद' आए हैं. हां याद आया मुझे वे  ही तो थे जो ठेला ले कर आते थे मोहल्ले के भीतर जिसमे गोलगप्पे /टिकिया हुआ करती थी . और वो इमली  /कैथा  /मकोई और बेर  बेचने वाले नूर जिन्हें मोहल्ले के बीस बसंत पार किए हुए लोग अबे बेहना और उनके चिढ़ जाने के बाद मामा कह कर बुलाते थे. लाला जी पुस्तक भण्डार और मन्नू पुस्तक भण्डार में गजब की प्रतिस्पर्धा थी. तब एक रुपए की कापी मिला करती थी जिस पर मैं और मेरे जैसे बच्चे टेस्ट दिया करते थे. कापी की  जिल्द भी भीतर के पन्ने के जैसी  पतली  होती थी  पर नाम था कापी और पेज होते थे बीस. पेन्सिल ,जिसके एक इंच के हो जाने तक  उसे छोड़ते नहीं थे ,पूरी तरह से खत्म करने के लिए पेन्सिल के दोनों तरफ नोक बना लिया करते थे. पेन्सिल कटर से ज्यादा अच्छी नोक छंगू नाई की दूकान से इस्तेमाल हुआ ब्लेड कर जाता था ,कभी कभी पेन्सिल कुरेदते वक्त ऊँगली से चमड़ा भी निकलता और खून भी. अशरफ बताता था की खून बहने नहीं देना ,जहाँ का हिस्सा कट गया हो उसको मुंह में भर लो ,खून वापस पेट में चला जाएगा और खून की कमी नहीं होगी। हाथ की ऊँगली में लगती चोट तो वो हिस्सा मुंह में समा जाता ताकि खून बचा रहे लेकिन कमबख्त पैर और पीठ पर लगी रगड़ और छीलन कैसे मुंह में समाए ,यही यक्ष प्रश्न सताए।
आज़ादी की पचासवी वर्षगांठ पूरे देश में धूम धाम से मनाई जा रही थी. सफ़ेद हाफ पेंट और तिरंगे वाली टोपी ,जिसका रबर अधिक जोर देने से टूट गया था को पतंग उड़ाने वाले मांझे से बांध लिए थे. सीना चौड़ा था पर छप्पन नहीं था लेकिन जोश ओ जूनून किसी छप्पन इंच वाले से कम भी नहीं थे. ये देश मेरा ,इंक़लाब का नारा, मेरा रंग दे बसंती चोला जैसे गाने को सुन कर बुद्धि भले न खुल पाती हो पर जाने क्यों हाथों के रोयें खड़े हो जाते थे. राष्ट्रवाद था यह या फिर देशद्रोह तब कहाँ पता था. लड्डू के लिए पांच रुपए जमा करवाए गए थे पर दी जलेबी गयी थी ,वादा खिलाफी करने में स्कूल वाले किसी नेता से कम नहीं उतरते थे ,आज क्या माहौल है नहीं पता. पर फहद कभी कभी कहता ज़रूर है मुझे कि पिछली बार उससे कहीं घुमाने ले जाने के लिए फीस ली गई थी और घुमाया संगम गया. उसने कहा भाई ,मैं तो संगम जा चुका हूं फिर क्यों ले गए. उसके साथ चीटिंग हुई या नहीं यह भी बड़ा सवाल है ,शायद उतना जितना आज के दौर में बनारस और लखनऊ की सीट से कौन लड़ेगा का सवाल। पूरा देश अपना सब कुछ भुला कर बस यही जानना चाहता है की जोशी लड़ेंगे या फिर मोदी। मोदी को बनारस से लड़वाने वालों को लगता है उनका वोटर कार्ड बनारस का बना है और वे उसे जीता देंगे एवं मोदी को हरवाने वालों को भी कुछ ऐसा ही लगता है।  मेरे हिसाब से मुझे लड़ जाना चाहिए क्योंकि मैं देशभक्त हूं ,बचपन से ही।  मैं जीत भी जाऊँगा क्योंकि सारे दलों से बुजुर्गों की छटनी हो रही है ,नौजवान आ रहे हैं।  कांग्रेस ने अब तक दिए गए टिकट में एक तिहाई युवाओं को दिया है.
मलावा बुजुर्ग गाँव से एक कबाड़ी आता था ,उसका नाम भूल रहा हूं ,कोई बचपन का दोस्त अगर इसे पढ़ रहा हो तो उसका नाम ज़रूर याद दिला दे.  वो हर पुरानी चीज़ के बदले दालपट्टी और चूरन दिया करता था. सब बच्चे उसका इंतज़ार करते थे. उसने बच्चों को खूब चूरन बनाया क्योंकि एक बार मैंने भी उसे अपने घर की पुरानी ओखली प्रदान कर दी थी. उसने उसके लिए मुझे जो दिया उसको मैंने बांट कर खा लिया था. बाद में ओखली की खोज होने लगी ,शायद पांच या आठ किलो के ऊपर की थी ,काफी पुरानी थी। घर से मोहल्ले में बर्तन जाया करता था जब शादी ब्याह होती किसी की,मुझे लगा किसी को पता नहीं चलेगा ,इतना सारा सामान तो है ही ।  मैं चूंकि घर में चचेरे भाइयों बहनों को मिला कर 19 वे नंबर पर आता था और निहायत ही शरीफ था को सबसे पहले बुलाया जाता है,अन्याय था यह ,सबको छोड़ कर पहला नंबर मेरा आता है।  मेरे लाख इंकार के बावजूद जैसे सबको यह यकीन था की कांड मैंने ही किया है. उस वक्त मेरा गैंग काफी बड़ा हुआ करता था ,सबको पकड़ा जाता है. लेकिन टूटता कोई नहीं सिवाए फुटून नाऊ के. उसने बता दिया की ओखली कबाड़ी के हाथो बिक चुकी है महज दालपट्टी के लिए. फुटून को घर वालों से जो इनाम मिला हो सो मिला हो पर सज़ा मुझे मिली। बाद में उसको बारी बारी से हम सब कछार में इनाम देते हैं.
पतंग की खातिर अगर जान बाजी पर लगानी पड़े तो वह मामूली सी बात थी ,एक मर्तबा कटी हुई पतंग के पीछे भागते हुए ट्यूबवेल के लिए बने गड्ढे में समा गए ,मिटटी डाल कर किसी बेहुदे और गैर ज़िम्मेदार नागरिक ने उसे यूँही छोड़ रखा था. गर्दन तक जा चुके थे ,बस मुंह और नाक जाने ही वाली थी की लोगों ने बचा लिया। खुद से बचे होते तो 'ब्रेवरी अवार्ड' ज़रूर मिलता या फिर आज गया होता तो प्रिंस की तरह फौजी आते और सारे न्यूज़ चैनल ,अखबार वाले भी.  हो सकता है इंडिया गाट टैलेंट में  मुझे बुलाया जाता  और फिर से वैसा ही परफार्म करने के लिए कहा जाता।
समय जाता रहा ,हमें बताया गया है की वक्त किसी के लिए नहीं रुकता, जाने क्यों नहीं रुकता ,इतना सब तो डेवलेपमेंट हो गया है।  जाना पड़ेगा समय को पीछे ,वो दुनिया बहुत हसीन  थी , वो सारे यार दोस्त भी ईमानदार थे जो छोटी छोटी बात में जी जान से जुड़े रहते थे. दोस्त कौन था और कौन दुश्मन उसकी पहचान हो जाती थी. यहां तो सब मुस्कुरा कर मिलते हैं. पर बताते नहीं की क्यों मुस्कुरा रहे हैं. हम नाराज़ होते थे तो अपनी साइकिल पर किसी को बिठाते नहीं थे और न तो अपने चबूतरे पर चढ़ने देते थे.

Wednesday 12 March 2014

मकसूद भाई थोड़ी ना था, कि जानू अल्लाह कैसे नाराज़ होते हैं और भगवान कैसे प्रसन्न

जब छोटा था तो सबसे ज्यादा घबराहट जिस चीज़ से होती थी वह थी स्कूल जा कर आठ घंटे एक ही बेंच पर ,एक ही कमरे में ,एक ही ब्लैकबोर्ड को देखना . पांच साल का हो गया तो सजा धजा ,काजल पाउडर और सर में पचास ग्राम तेल चपोड़ घर में काम करने वाले दस्सू चच्चा इलाहबाद मांटेसरी स्कूल छोड़ आते ।पढ़ता कम और रोता ज्यादा था इसलिए क्लास से बाहर निकाल प्ले ग्राउंड भेज दिया जाता ।लेकिन स्कूल के टीचर जल्दी ही समझ गए की लड़का पहुंचा हुआ है ,रोज़ रोज़ का नाटक है इसका न पढ़ने का । फिर भई लाख रो लूं ,नाक बहा लूं पर निर्दयी प्रिंसिपल सैयदा ज़िया को मुझ पर दया न आती ।अब तो किसमी बार चाकलेट भी न मिलती । इतना अत्याचार सहने की हिम्मत न हुई तो हमने एक ही महीने में स्कूल जाना बंद कर दिया ।घर में दादाजान की चलती थी ।उनसे हमारा यह हाल देखा न जा रहा था ,अब्बू की चलती तो उसी स्कूल में दफ्न करवा देते । खैर फिर घर से थोड़ी दूर पर मदरसा था जो की सुबह छह बजे फजिर की नमाज़ के बाद खुल जाता ।अल्लाह कसम ,जाने कैसे मौलवी थे ,इत्ती सुबह उठ जाते थे ।छह से नौ बजे तक जो कमर तोड़ाई होती की हमारी रूह काँप जाती ,मेरे सामने मौलवी साब जमीन पर लोथार लोथार के मारते ।अपने सामने उन फरारी काटे बच्चों को देखता जिन्हें चार आठ लड़के लाद कर लाते और फिर ऐसी तोड़ाई होती की हम भागने की सोच न पाते ।इन हालात में मांटेसरी की मैडम और क्यूट क्यूट सी लड़कियां याद आती और जब उनके ख्याल में डूबा आस पास नज़र फेरता तो सलवार कमीज और अपनी लम्बाई से चार गुना लंबा दुपट्टा लपेटे नाक बहाती लड़कियों की सिसकियाँ ।खौफ का जो मंज़र तारी होता वहां उसमे सुकून चैन इश्क़ सब लुट जाता ।मैं हिज्जे लगा कर अलिफ़ बे पढ़ रहा था ,इसलिए ज्यादा भार रहता नहीं था सबक याद करने का ।पहले ही पन्ने में पन्द्रह दिन गुजर गए फिर कहीं जा कर दूसरे तरफ क्या लिखा है जान पाया । मदरसे से निकलता तो फूफी के लड़के मकसूद खान ,जावेद और बड़े अब्बू के लड़के रिज़वान और छोटी फूफीजान सायरा के साथ संकीर्तन आश्रम जाता ।वहां दस बजे से शाम के चार बजे तक संस्कृत /हिंदी की पढ़ाई होती,पर हम चारों को शुरू के तीन घंटे की इजाज़त मिली थी जिसमे हिंदी और थोड़ी बहुत संस्कृत पढ़ा देते थे ।मदरसे से हिसाब (गणित) और टूटी फूटी अंग्रेजी के साथ अरबी (बिना समझ वाली) उर्दू  को समेटे हुए ,एक साथ से खिसकते पैजामे को संभाले तो दूजे हाथ की आस्तीन  से आँखों से बहते आँसू को पोछते हुए बस आस पास के लोगों से यही इल्तिजा करता की हाय कोई तो रोक लो इस अत्याचार को । खैर पाठशाला में घुसने से पहले सर से जालीदार टोपी जेब में रखने की हिदायत मकसूद भाई देते और कहते की टिफिन में कबाब या कीमा हो तो दुपहर के खाने में ढक्कन न खोलना ,यहाँ खाना मना है । हम सब भीतर जाते आंवले के पेड़ के तले ‘स्वच्छ जल’ की टंकी से प्यास बुझाते फिर खुले से चटियल मैदान में बिछी टाट पट्टी पर बैठ जाते । सबसे पहले प्रार्थना होती ,हिन्दू बच्चे हाथ जोड़ते और हम सब हाथ बाँध के खड़े रहते ,सब जोर जोर से दोहराते ।और हमें कहा गया की बस होंठ हिलाना ,बुदबुदाना ,ऐसा लगे की तुम भी वही दोहरा रहे हो ।मकसूद भाई ने कहा था की अल्लाह मियाँ नाराज़ होंगे अगर इन हिन्दुओं की तरह कुछ बोले तो इसलिए उन्होंने हमे सिखाया था ‘अल्लाह तू माफ़ करने वाला है ,इन न समझों को माफ़ कर ,ये तेरी इबादत नहीं किसी और की करते हैं ,और हमें तालीमयाफ्ता बना दे’.। एक बार धीरे धीरे बोलने के चक्कर में मेरे मुंह से ये सब जोर जोर से निकल गया,था तो मैं बच्चा ।मैं  कोई मकसूद भाई थोड़ी ना था की जानू अल्लाह कैसे नाराज़ होते हैं और भगवान कैसे प्रसन्न  ।आस पास के त्रिपाठी ,तिवारी ,निषाद के बच्चे वैसे ही खार खाए बैठे थे ।मेरे मुंह से अल्लाह माफ़ करे सुन कर गुरु जी से शिकायत कर बैठे । पढ़ाते तो कई सारे लोग थे पर गंगाधर मिसिर उन सबमे बड़े अच्छे थे ,उन्हें उर्दू भी आती थी ।खुशकिस्मती ये की हमारी अल्लाह को याद करने और हिन्दुओं को माफ़ करने वाली शिकायत उन्ही के यहाँ दर्ज होती है ।वे मुस्कुराते हैं और कहते हैं कोई बात नहीं ,इस प्रार्थना में जो अनस करता है उसमे बुराई ही क्या है ।जैसे हम सब अपने अपने पापों की क्षमाप्रार्थना मांगते हैं भगवान से वैसे अनस अपने साथ ही साथ तुम सबकी गलतियों की माफ़ी मांगता है । आचार्य जी द्वारा मेरी दुआ की इस व्याख्या ने ,मेरे बाल मन पर गहरा असर डाला । जिस दुआ को करने के लिए बड़े भाई ने मुझे जासूसों की तरह बना दिया था उसको इतना सहज और सरल तरीके से लेने के कारण आगे से मकसूद भाई की बातों को मैं एक कान से सुनता दूसरे से निकाल देता । उस दिन से मदरसे से फटाफट निकल आश्रम जाने की व्याकुलता में अरबी, उर्दू , हिसाब और अंग्रेजी के सबक मुझे तेजी याद होने लगे । इस तरक्की से मौलाना साब को भी कोफ़्त होती की ये लौंडा बिना मार खाए आखिर कैसे रट लेता है सब कुछ । और इसी उधेड़बन में उनका तगड़ा वाला हाथ बेवजह मेरे ऊपर उठने लगा ,कमर लाल हो जाती ,मैं बिलबिला के चीख उठता ।लेकिन वे उम्र और ताकत दोनों में दस गुना थे और मैं बेचारा । फर्जी की तुड़ाई करने की आदत उस मोटे बिहारी मौलाना में थी ,लुंगी और कुर्ता में कल्लन चिकवा से कहीं कम नहीं बैठता था । इस बीच मेरा मन मदरसे से दूर भागने लगा ।मेरा भी मन फरारी काटने का होता और गंगा किनारे बैठ नदी निहारने का ,पर घर से पढ़ने वाले और भी थे जो ‘घर का भेदी लंका ढाए’ थे । ऐसे में मैंने हिम्मत कि की अब बस बहुत हुआ ,पानी पीने के बहाने जाता तो अगली घंटी के बाद आता ।इस ख्याल से खुश हो जाता की आज मार नहीं पड़ेगी । रोज़ रोज़ मार खाने से बेहतर एक दिन नागा करके मार खाऊं । अगले में मौलाना इदरीस आते थे जो अंग्रेजी और हिसाब पढ़ाते ,वे किसी को एक थप्पड़ नहीं मारते बस डराते और कहते ‘इतना मारूंगा की मर जाओगे ‘ और मर जाने से हम सब डरते थे । फिर लुका छिपी का खेल यूँही चलता रहा इदरीस साहब की मुहब्बत से मैं जमा रहता मदरसे में और उन मौलाना साब की मार पीट के बावजूद उर्दू और अरबी की तालीम हासिल करता रहा ,खैर दो साल तक प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद फिर से उसी मांटेसरी स्कूल में दाखिला हुआ ,अब वहां मन लगने लगा था क्योकि मिस तबस्सुम पे मेरा दिल आ गया था ।

बाग़ के आधे हिस्से में हाइवे समा गया.

कल शाम दफ्तर से निकल कर घर की तरफ जा रहा था. केन्द्रीय सचिवालय से येलो लाइन मेट्रो पर सवार हुआ. पिछले तीन महीने से इस लाइन पर आता और जाता हूं.शायद गिनती के तीन या चार मौके मिले हैं जब मुझे बिना खड़े हुए यात्रा नसीब हुई हो. मेट्रो में सब लोग जल्दी में रहते हैं. कुछ लोग भागते हुए भीतर घुसते हैं तो कुछ लोग उसी तेजी से बाहर। फ्रिस्किंग के दौरान वर्दी वाले भाई साहब भी बहुत जल्दी में होते हैं. वे एक बार कमर के ऊपर तेजी से डिटेक्टर यंत्र को गुजारते हैं. नीचे नहीं जाते। उन्हें पता है की नीचे कुछ नहीं होगा। शायद ही कभी मेरे जूते या पैरों पर से हो कर उनकी हाथ मशीन गुजरी हो. सब लोग बहुत फटाफट वाले अंदाज़ में काम करते हैं. कोई रुकना चाहे तो मेट्रो उसे रुकने नहीं देती। भागना इसकी नियति बन चुकी है. हम भी खुद को उसी के हिसाब से ढाल लेते हैं.

इलाहाबाद में मेरा ननिहाल फूलपुर के फिरोजपुर भरारी गाँव में है. तांगा चलता था. हनुमानगंज से फिरोजपुर के बीच नौ किलोमीटर की दूरी एक घंटे में तय होती थी. घर में पुरानी ओमनी कार थी. 1997 तक झूंसी गाँव के कुछ गुप्ता और अग्रवाल परिवारों में चार पहिया थी. मैं तो हमेशा अकेले ही नानी के घर चला जाता था. दूर तक फैले खेत और बसंत में पेड़ से टूट कर गिरे पत्तों पर दौड़ना दुनिया का सबसे अच्छा काम लगता था. नानी के बाग़ की रखवाली सोहन यादव किया करते थे. उनका घर भी बाग़ के बगल में था.सोहन और सोहन के जैसे बाकी लोग गाँव से बाहर नहीं जाते थे. मैं उनसे पूछता की आप यहाँ रहते हो ,बस कच्चे मकान और खेत हैं. मन कैसे लगता है. क्योंकि मैं वहां हमेशा के लिए रहने नहीं जाता था बस एक दो दिन ही रहता था. बहुत से सवाल मेरे मन में उठते और उनका जवाब सोहन से लेकर गाँव के प्रधान तक के पास न होता।
इक्का की सवारी ही नानी के घर तक पहुंचने का साधन थी. हनुमानगंज में मिनी बस का स्टापेज था. झूंसी से बैठता और वहां उतर जाता। स्टाप पर हलवाई की दूकान थी ,वह दूकान झूंसी के पिंटू केसरवानी के बड़े भाई की थी. पिंटू मेरा दोस्त था. थोड़ी देर वहां रुकता था,पिंटू बिना पैसे के कलाकंद खिलाता। समोसा भी. मैं उसको अपने रुतबे के मकड़जाल में फंसा कर बड़ी बड़ी बाते बताता। पिंटू को मेरे रहते कोई दिक्कत नहीं होनी थी ,उसे ऐसा यकीन दिलाता। यारी दोस्ती और ठेकेदारी की बाते निपटा कर तांगा पकड़ता। घोड़े के ठीक पीछे बैठता ,जहां घोड़े वाला नायलान की पतली रस्सी नुमा डंडे से घोड़े के कमर पर चटका लगाता. घोड़ा रफ़्तार पकड़ लेता। लेकिन घोड़ा अगल बगल से गुजरने वाली साइकिल और जीप से आगे न भाग पाता। पता नहीं उस घोड़े की रफ़्तार ही इतनी थी या फिर घोड़े पर बैठे लोगों को जल्दबाजी नहीं थी. पहुंचना सभी चाहते थे ,और पहुँचते भी थे. घोड़े वाले। ट्रैक्टर वाले।  साइकिल वाले।
नानी के घर में मोहन रहता था. वह गाय भैंस वगैरह के चारे का इंतजाम करता था. इस दुनिया में उसका कोई नहीं था. सिवाए मेरे ननिहाल वालों के. दो तीन साल रहने के बाद वह मुसलमान हो जाता है. अब जब वह मुसलमान बन गया तो उसका नाम अब्दुल रखा जाता है. अब्दुल की चाहत थी की उसे हाफ़िज़ बनना है और मस्जिद में इमामत करनी है. उसकी यह बात मान ली जाती है. इलाहाबाद में ही एक जगह है उतरांव,वहां एक बड़ा मदरसा है. उसे वहीँ भेजा जाता है. पढ़ने के बाद वह वापस आ जाता है और मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने लगता है. अब उसे भैंस गाय को चारा देने की ज़रुरत नहीं पड़ती। लेकिन जब तक वह मोहन था तब तक वह मुझे खेत से मटर तोड़ कर देता था. मीठी मटर मुझे पसंद थी. खेत में पुवाल जलाता और उसमे मटर डाल कर भूनता भी था. आलू भी पकाता था और आम भी उसी आग में. वो इमाम बन गया तो मुझे ये सब काम खुद से करने पड़ते थे.
कई सारे लोग थे उस समय जिनकी जिंदगी ,मेरे हिस्से में शामिल थी. सोहन ,पिंटू ,मोहन ,तांगे वाला। समय आगे बढ़ता गया. ये सब दूर चले गए या मैं इनके पास नहीं रहा. बाग़ के आधे हिस्से में हाइवे समा गया तो बाकी का एक हिस्सा हाइवे के उस पार चला गया. इस बार गया था तो सोलह पहिए के ट्रकों ने वहां भी पीछा किया जहाँ बसंत में सिर्फ पत्तों की सरसराहट सुनाई देती थी अब वहां खरगोश और सियार की आवाज़ तक नहीं आती. सब तेजी से बदल गया.
फिर आऊंगा किसी रोज़ तांगे पर सवार हो कर ताकि अपना बीता हुआ कल याद करके कुछ कतरा आंसू टपका सकूं वहां जहाँ सुराही से पानी निकालते वक्त जान बूझ कर पानी छलका देता था.