मैं किसी पुराने अंग्रेज बंगले की सफ़ेद चूने से पुती दिवार
जैसा महसूस कर रहा हूँ जिसने अपने अतीत के वैभव और यश को खूब जिया और आज उन
दीवारों से जब सीलन और पपड़ी छूटने लगी थी भरभरा कर गिर जाती है. ऐसे तमाम बंगले और
ऐतहासिक धरोहरों के स्वर्णिम इतिहास का भविष्य इतना खोखला क्यों हो जाता है. जिन
लोगों ने इन भवनों का निर्माण करवाया होगा उन्होंने अपनी सारी पूँजी और मेहनत इन
पर खर्च की होगी. दरों दिवार की रंगाई पोताई से लेकर उनमे नक्काशी का अद्भुत
मिश्रण घोला होगा. कहीं से पत्थर आएं होंगे तो कहीं सी सागौन की मजबूत लकड़ियाँ.
मजदूर भी देश के कोने कोने से खोज कर निकाले गए होंगे. किसी चीज़ के निर्माण में
कितनी मेहनत लगती है और फिर धीरे धीरे जब उसका अंत करीब आता है तो वही बेशकीमती
चीज़ एक खँडहर में बदल जाती है.
हम इंसानों का भी यही हाल है. हम बनते हैं. संवरते हैं और
एक दिन चुक जाते हैं. इंसानी बनावट को बुनने के लिए ज़रूरी खुराक लेते हैं और एक
दिन इस दुनिया को अलविदा कह कर चले जाते हैं. हमारे बनने और बिगड़ जाने के बीच का
यथार्थ कभी उन नई नवेली अंग्रेजी हवेलियों सा होता है तो कभी झाड़ झंखाड़ सा होना
पड़ता है. जीवन के इस क्रूर सत्य से ज़िन्दगी का आईना हर मोड़ पर रूबरू करवाता है. हम
देखते हैं और चलते जाते हैं.
1865 के आस पास ऑकलैंड रोड, इलाहाबाद पर ऐसे ही एक बंगले का
निर्माण शुरू हुआ था. सड़क का नाम आज भी नहीं बदला है. एक शाम बेसुध सा मैं उस
रास्ते पर भटकते हुए जा रहा था. सामने सूरज की आखरी किरण बस डूबने को होती है.
ऊँचे और पुराने पेड़ों पर ख़ामोशी की गहरी परत जम चुकी होती है. चौड़ी और ख़ामोशी
अख्तियार किये हुए सड़क पर मेरी कार का इंजन ऐसे शोर कर रहा होता है मानों तीन तरफ
से घिरी नदी जो अपनी ही दुनिया में खोयी हुई मद्धम बह रही हो उसमे पहाड़ की एक चोटी
से टूट कर पत्थर गिर गए हो. सड़क की ख़ामोशी को चीरने की गुस्ताखी मैंने की थी. जिस
रास्ते पर मैं था वो अकेले का मेरा रास्ता नहीं था. वहां मौजदू बंगला, पेड़, पक्षी
और डूबता सूरज सब उस रास्ते के साझीदार थे लेकिन गुस्ताखी अकेली मेरी थी. एक पल को
आया की इंजन बंद कर दूँ और पैदल ही राह पकड़ लूं फिर ख्याल आया की यहाँ मौजूद इन
दरख्तों ,परिंदों और बेजान से बंगले में क्या इतनी भी समझ नहीं की मेरी मौजदूगी को
स्वीकार लें. स्वीकारना तो पड़ेगा ही. सबका अपना एक हिस्सा है यहाँ. मेरा भी है. दस
सेकण्ड की ड्राइव के बाद बंगला छुप गया. पेड़ पीछे छूट गए और पक्षियों की कोलाहल
सन्नाटे में बदल गई. मेरी चाल में कोई बदलाव नहीं आया. मैं ऑकलैंड रोड को पार करता
हुआ कैंटोनमेंट की तरफ मुड़ चुका था. वहां के घुमावदार रास्तों से थोड़ा आगे जाने पर
हाईकोर्ट की इमारत नज़र आ रही थी. इस रास्ते पर दोपहर का जाम और शाम का खालीपन क्या
मेरी ज़िन्दगी की किसी कहानी की दावेदारी कर रहे थे. सड़क पर चलते हुए ऐसा ही लग रहा
था. जिन रास्तों पर दिन भर बड़ी और लम्बी गाड़ियों का रेला लगा होता था वहां दूर तक
नज़र दौड़ाने पर भी कोई नहीं दिख रहा था. इन सड़कों का भी लोग अपनी ज़रूरत के हिसाब से
इस्तेमाल करते हैं. क्या मैं इनके खालीपन से उदास हूँ. कहीं ऐसा तो नहीं की ये सड़क
शाम को ज्यादा अच्छा महसूस करती हो बनिस्बत दिन और दोपहर के. खैर कुछ भी, मुझे सड़क
से इतनी लगाव नहीं रखनी चाहिए. क्योंकि मैं सड़क नहीं हूँ. मैं तो इंसान हूँ. भला
कैसा समझूंगा सड़क क्या चाहती है और क्या नहीं. मेरी ज़िन्दगी में आये इस अचानक से
खालीपन का मुझे ज़रूर दुःख है. ऐसी शाम की तवक्को मैंने कभी नहीं की थी, हाँ की थी
पर किसी के साथ. जिसकी मौजदूगी से ही परिंदों और दरख्तों के झूम उठने का यकीन होता
था. वो यहाँ नहीं है. उसकी जगह ये सड़क है. मैं इस सड़क को ही उसे समझ लेता हूँ. अब
धीरे धीरे सड़क को मैं समझने लगा हूँ. ऐसा महसूस हो रहा है की कुछ देर के साथ के
बाद मैंने उसे जान लिया. वो इस ख़ामोशी को पसंद कर रही है. इस खालीपन को वो जी रही
है. सड़क चाहती है की उस पर कोई न चले. उसके साथ ये अकेलापन रहने दे.
मैं निकल आया हूँ. सड़क बैक मिरर में दिख रही है. जितना मैं
उसे देख रहा हूँ वो उतना ही विस्तार ले रही है. पहले कम दिखती है फिर ज्यादा दिखने
लगती है. धीरे धीरे एक दूरी बन गई. मुझमे और उसकी शुरुआत में. तभी चौराहा आ गया और
मैंने गाड़ी राईट साइड मोड़ दी.
विनोद ने बिना कुछ पूछे कॉफ़ी और दो छोटी गोल्ड टेबल पर रख
दी. और कुछ लेंगे साहब? हाँ, पानी लाना.