Thursday 20 March 2014

इंक़लाबी लोगों का कहना है कि गुजरात में तरक्की हुई ही नहीं.

हिन्दुस्तान में सियासी जमातों की आमद का महीना गर्मियों में शुरू होता है. राजनीति की पिच इतनी सरगर्म हो जाती है कि उस पर दौड़ने वाले लोग जिस्मानी और अक्ली तौर पर अपना तवाजुन खो देते हैं. बनारस का हाल तो और भी खतरनाक मोड़ पर है. वहां देश के जाने माने सियासतदां जनाब नरेंद्र मोदी की तरफ से हुंकार भरी गई है. गौरतलब है कि जनाब मोदी को हिन्दुस्तान के मुसलमान पसंद नहीं करते ,वजह 2002 के गुजरात दंगों को बताया जाता है. अप्रैल के महीने में जहां देश भर की अवाम गोवा,कश्मीर और दीगर ठंडी जगहों पर जा कर होलीडे मनाती है वहीँ नेता गलियों और चौराहों की ख़ाक छानते हैं.
सुनने में आया है की आम आदमी पार्टी के नाम से बनी एक सियासी जमात के अमीर जनाब अरविन्द केजरीवाल भी काशी से अपना परचा भरना चाहते हैं लेकिन हमेशा की तरह वे इस बाबत अवाम में रायशुमारी करवाना चाहते हैं.वहीँ देश को पिछले दस सालों से संभालने वाली कांग्रेस पार्टी के दिग्गज और ट्विटर पर मौजूद रहने वाले जनाब दिग्विजय सिंह जी भी मोदी से लड़ने को हामी भर चुके हैं. ऐसे में मुक़ाबला बेहद दिलचस्प हो जाता है अगर आलाकमान राजा की बात मानते हुए उन्हें टिकट दे देती है तो.

बनारस के लोग बनारस में रह कर ही तिजारत करते हैं इसलिए उनकी तहज़ीब में मिलावट नहीं आ पाई है,वरना हिंदोस्तान के ज्यादातर शहरों में मिलावट कायदे से हो चुकी है. मिलावट कई तरह की होती है ,कहीं उसे अच्छा समझा जाता है तो कहीं ख़राब. बनारस के हालिया माहौल पर नज़र डालें तो लोग गुजरात माडल की तरफदारी करते नहीं थकते. इसके लिए बनारस वालों को मीडिया का शुक्रगुजार होना चाहिए कि इतने जमाने से गुजरात भारत का हिस्सा है और उन्हें अब जा कर इसका एहसास हुआ. गुजरात के रहने वाले कुछ बाशिंदे अब अपनी ईमेल और फेसबुक अकाउंट में ‘द ग्रेट हिंदुत्वा स्टेट गुजरात’ लिखने लगे हैं लिहाजा बनारस वालों की खुशियों जल्द ही मातम में बदल जाएंगी जब गुजरात उन्हें अपना मानने से इंकार कर देगा. अभी बनारस में रहने वालों को इस बात का इल्म नहीं हुआ है कि उन्हें पिछले 65 साल से ढगा जा रहा था उसका सिलसिला यूंही आगे बदस्तूर जारी रहेगा. हिंदी ज़ुबान के मशहूर लेखक काशीनाथ सिंह ने मोदी के आने पर बनारस की तरक्की हो जाने की बात कही है ,ऐसा हो जाएगा या नहीं इसका कयास लगाना जून महीने में बारिश हो जाएगी या नहीं के जैसा है. लेकिन इस बात को कतई नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि बनारस की एक बड़ी अवाम तरक्की के मुद्दे पर जनाब नरेंद्र मोदी के साथ खड़ी है. इंक़लाबी लोगों का  कहना है कि गुजरात में तरक्की हुई ही नहीं है ,एक नौजवान मुजाहिद ने तो यहाँ तक कह डाला की एक रुपए के काम को एक हजार रुपए खर्च कर मुनादी करवाने में ये लोग माहिर हैं. फिलहाल विकिलीक्स ने भी बता दिया कि मोदी और उनकी जमात हिन्दुस्तान में अवाम को अँधेरे में रख कर हुकूमत में आना चाहते हैं. पूरी दुनिया में इस बात की चर्चा शुरू हो गई कि हिन्दुस्तान में इलेक्शन के दरम्यान लोग कितना झूठ बोलते हैं. मुसलमानों को आज़ादी के वक्त यहाँ ठहर जाने की बात कहने वाले गांधी जी को भी बहुत से लोग इस चुनाव में घसीट चुके हैं तो दूसरी तरफ हैदराबाद में निज़ाम को घुंटने टेकने पर मजबूर करने वाले सरदार पटेल की याद और मोदी की कयादत में मूर्ति बनवाने की बात भी चली. इन दोनों जज्बाती हिस्से में लोगों के खूब जोर शोर से अपनी खिदमत फ़राहम करवाई. एक मर्तबा ऐसे ही लाखों करोड़ो लोगों ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के वक्त सब कुछ भुला कर खिदमत पेश की थी लेकिन अफ़सोस उससे कुछ ख़ास हासिल नहीं हो सका. दुनिया में यही एक अलहदा मुल्क है जहां वादे इसलिए किए जाते हैं ताकि उन्हें पूरा न किया जा सके. लोहा सबने दिया पर वो गया कहां किसी ने नहीं पूछा ,अरे कम से कम मंदिर के नाम पर दिए गए दान के बारे में तो पूछताछ कर ही सकते हैं आप ,या ये भी नहीं होगा. बनारस में बिना किसी ख़ास मुद्दे के लोग आपस में लड़ रहे हैं,अभी तक न तो लैपटाप का वादा हुआ न ही अनाज का और न तो स्विस बैंक से पैसा वापस लाने का. नेता ऊपर से वादे थोप देता है और अवाम उसे अपना वादा समझ कर निभाने का इंतज़ार करती है. सड़क टूट गई है ,इस बार दरिया-ए-गंगा ने बनारस के भीतर तक लोगों को स्नान करवाया. लोग कई हफ़्तों तक घरों के दरवाज़े बंद कर छत पर महफूज़ बने रहे थे. इन हालात में बिना प्रैक्टिस के बनारस से परचा भरने वालों को अगर वहां जीत मिल जाती है तो जिस्म और दिमाग का माहौल इस मर्तबा अवाम का बिगड़ने वाला है नेता का नहीं.

Friday 14 March 2014

यहां तो सब मुस्कुरा कर मिलते हैं पर बताते नहीं कि क्यों मुस्कुरा रहे हैं

कृष्ण चन्द्र  हलवाई जिन्हें भाषा की देसज रूप का नुकसान उठाना पड़ता था यह सुन कर की 'क्री चंद' आए हैं. हां याद आया मुझे वे  ही तो थे जो ठेला ले कर आते थे मोहल्ले के भीतर जिसमे गोलगप्पे /टिकिया हुआ करती थी . और वो इमली  /कैथा  /मकोई और बेर  बेचने वाले नूर जिन्हें मोहल्ले के बीस बसंत पार किए हुए लोग अबे बेहना और उनके चिढ़ जाने के बाद मामा कह कर बुलाते थे. लाला जी पुस्तक भण्डार और मन्नू पुस्तक भण्डार में गजब की प्रतिस्पर्धा थी. तब एक रुपए की कापी मिला करती थी जिस पर मैं और मेरे जैसे बच्चे टेस्ट दिया करते थे. कापी की  जिल्द भी भीतर के पन्ने के जैसी  पतली  होती थी  पर नाम था कापी और पेज होते थे बीस. पेन्सिल ,जिसके एक इंच के हो जाने तक  उसे छोड़ते नहीं थे ,पूरी तरह से खत्म करने के लिए पेन्सिल के दोनों तरफ नोक बना लिया करते थे. पेन्सिल कटर से ज्यादा अच्छी नोक छंगू नाई की दूकान से इस्तेमाल हुआ ब्लेड कर जाता था ,कभी कभी पेन्सिल कुरेदते वक्त ऊँगली से चमड़ा भी निकलता और खून भी. अशरफ बताता था की खून बहने नहीं देना ,जहाँ का हिस्सा कट गया हो उसको मुंह में भर लो ,खून वापस पेट में चला जाएगा और खून की कमी नहीं होगी। हाथ की ऊँगली में लगती चोट तो वो हिस्सा मुंह में समा जाता ताकि खून बचा रहे लेकिन कमबख्त पैर और पीठ पर लगी रगड़ और छीलन कैसे मुंह में समाए ,यही यक्ष प्रश्न सताए।
आज़ादी की पचासवी वर्षगांठ पूरे देश में धूम धाम से मनाई जा रही थी. सफ़ेद हाफ पेंट और तिरंगे वाली टोपी ,जिसका रबर अधिक जोर देने से टूट गया था को पतंग उड़ाने वाले मांझे से बांध लिए थे. सीना चौड़ा था पर छप्पन नहीं था लेकिन जोश ओ जूनून किसी छप्पन इंच वाले से कम भी नहीं थे. ये देश मेरा ,इंक़लाब का नारा, मेरा रंग दे बसंती चोला जैसे गाने को सुन कर बुद्धि भले न खुल पाती हो पर जाने क्यों हाथों के रोयें खड़े हो जाते थे. राष्ट्रवाद था यह या फिर देशद्रोह तब कहाँ पता था. लड्डू के लिए पांच रुपए जमा करवाए गए थे पर दी जलेबी गयी थी ,वादा खिलाफी करने में स्कूल वाले किसी नेता से कम नहीं उतरते थे ,आज क्या माहौल है नहीं पता. पर फहद कभी कभी कहता ज़रूर है मुझे कि पिछली बार उससे कहीं घुमाने ले जाने के लिए फीस ली गई थी और घुमाया संगम गया. उसने कहा भाई ,मैं तो संगम जा चुका हूं फिर क्यों ले गए. उसके साथ चीटिंग हुई या नहीं यह भी बड़ा सवाल है ,शायद उतना जितना आज के दौर में बनारस और लखनऊ की सीट से कौन लड़ेगा का सवाल। पूरा देश अपना सब कुछ भुला कर बस यही जानना चाहता है की जोशी लड़ेंगे या फिर मोदी। मोदी को बनारस से लड़वाने वालों को लगता है उनका वोटर कार्ड बनारस का बना है और वे उसे जीता देंगे एवं मोदी को हरवाने वालों को भी कुछ ऐसा ही लगता है।  मेरे हिसाब से मुझे लड़ जाना चाहिए क्योंकि मैं देशभक्त हूं ,बचपन से ही।  मैं जीत भी जाऊँगा क्योंकि सारे दलों से बुजुर्गों की छटनी हो रही है ,नौजवान आ रहे हैं।  कांग्रेस ने अब तक दिए गए टिकट में एक तिहाई युवाओं को दिया है.
मलावा बुजुर्ग गाँव से एक कबाड़ी आता था ,उसका नाम भूल रहा हूं ,कोई बचपन का दोस्त अगर इसे पढ़ रहा हो तो उसका नाम ज़रूर याद दिला दे.  वो हर पुरानी चीज़ के बदले दालपट्टी और चूरन दिया करता था. सब बच्चे उसका इंतज़ार करते थे. उसने बच्चों को खूब चूरन बनाया क्योंकि एक बार मैंने भी उसे अपने घर की पुरानी ओखली प्रदान कर दी थी. उसने उसके लिए मुझे जो दिया उसको मैंने बांट कर खा लिया था. बाद में ओखली की खोज होने लगी ,शायद पांच या आठ किलो के ऊपर की थी ,काफी पुरानी थी। घर से मोहल्ले में बर्तन जाया करता था जब शादी ब्याह होती किसी की,मुझे लगा किसी को पता नहीं चलेगा ,इतना सारा सामान तो है ही ।  मैं चूंकि घर में चचेरे भाइयों बहनों को मिला कर 19 वे नंबर पर आता था और निहायत ही शरीफ था को सबसे पहले बुलाया जाता है,अन्याय था यह ,सबको छोड़ कर पहला नंबर मेरा आता है।  मेरे लाख इंकार के बावजूद जैसे सबको यह यकीन था की कांड मैंने ही किया है. उस वक्त मेरा गैंग काफी बड़ा हुआ करता था ,सबको पकड़ा जाता है. लेकिन टूटता कोई नहीं सिवाए फुटून नाऊ के. उसने बता दिया की ओखली कबाड़ी के हाथो बिक चुकी है महज दालपट्टी के लिए. फुटून को घर वालों से जो इनाम मिला हो सो मिला हो पर सज़ा मुझे मिली। बाद में उसको बारी बारी से हम सब कछार में इनाम देते हैं.
पतंग की खातिर अगर जान बाजी पर लगानी पड़े तो वह मामूली सी बात थी ,एक मर्तबा कटी हुई पतंग के पीछे भागते हुए ट्यूबवेल के लिए बने गड्ढे में समा गए ,मिटटी डाल कर किसी बेहुदे और गैर ज़िम्मेदार नागरिक ने उसे यूँही छोड़ रखा था. गर्दन तक जा चुके थे ,बस मुंह और नाक जाने ही वाली थी की लोगों ने बचा लिया। खुद से बचे होते तो 'ब्रेवरी अवार्ड' ज़रूर मिलता या फिर आज गया होता तो प्रिंस की तरह फौजी आते और सारे न्यूज़ चैनल ,अखबार वाले भी.  हो सकता है इंडिया गाट टैलेंट में  मुझे बुलाया जाता  और फिर से वैसा ही परफार्म करने के लिए कहा जाता।
समय जाता रहा ,हमें बताया गया है की वक्त किसी के लिए नहीं रुकता, जाने क्यों नहीं रुकता ,इतना सब तो डेवलेपमेंट हो गया है।  जाना पड़ेगा समय को पीछे ,वो दुनिया बहुत हसीन  थी , वो सारे यार दोस्त भी ईमानदार थे जो छोटी छोटी बात में जी जान से जुड़े रहते थे. दोस्त कौन था और कौन दुश्मन उसकी पहचान हो जाती थी. यहां तो सब मुस्कुरा कर मिलते हैं. पर बताते नहीं की क्यों मुस्कुरा रहे हैं. हम नाराज़ होते थे तो अपनी साइकिल पर किसी को बिठाते नहीं थे और न तो अपने चबूतरे पर चढ़ने देते थे.

Wednesday 12 March 2014

मकसूद भाई थोड़ी ना था, कि जानू अल्लाह कैसे नाराज़ होते हैं और भगवान कैसे प्रसन्न

जब छोटा था तो सबसे ज्यादा घबराहट जिस चीज़ से होती थी वह थी स्कूल जा कर आठ घंटे एक ही बेंच पर ,एक ही कमरे में ,एक ही ब्लैकबोर्ड को देखना . पांच साल का हो गया तो सजा धजा ,काजल पाउडर और सर में पचास ग्राम तेल चपोड़ घर में काम करने वाले दस्सू चच्चा इलाहबाद मांटेसरी स्कूल छोड़ आते ।पढ़ता कम और रोता ज्यादा था इसलिए क्लास से बाहर निकाल प्ले ग्राउंड भेज दिया जाता ।लेकिन स्कूल के टीचर जल्दी ही समझ गए की लड़का पहुंचा हुआ है ,रोज़ रोज़ का नाटक है इसका न पढ़ने का । फिर भई लाख रो लूं ,नाक बहा लूं पर निर्दयी प्रिंसिपल सैयदा ज़िया को मुझ पर दया न आती ।अब तो किसमी बार चाकलेट भी न मिलती । इतना अत्याचार सहने की हिम्मत न हुई तो हमने एक ही महीने में स्कूल जाना बंद कर दिया ।घर में दादाजान की चलती थी ।उनसे हमारा यह हाल देखा न जा रहा था ,अब्बू की चलती तो उसी स्कूल में दफ्न करवा देते । खैर फिर घर से थोड़ी दूर पर मदरसा था जो की सुबह छह बजे फजिर की नमाज़ के बाद खुल जाता ।अल्लाह कसम ,जाने कैसे मौलवी थे ,इत्ती सुबह उठ जाते थे ।छह से नौ बजे तक जो कमर तोड़ाई होती की हमारी रूह काँप जाती ,मेरे सामने मौलवी साब जमीन पर लोथार लोथार के मारते ।अपने सामने उन फरारी काटे बच्चों को देखता जिन्हें चार आठ लड़के लाद कर लाते और फिर ऐसी तोड़ाई होती की हम भागने की सोच न पाते ।इन हालात में मांटेसरी की मैडम और क्यूट क्यूट सी लड़कियां याद आती और जब उनके ख्याल में डूबा आस पास नज़र फेरता तो सलवार कमीज और अपनी लम्बाई से चार गुना लंबा दुपट्टा लपेटे नाक बहाती लड़कियों की सिसकियाँ ।खौफ का जो मंज़र तारी होता वहां उसमे सुकून चैन इश्क़ सब लुट जाता ।मैं हिज्जे लगा कर अलिफ़ बे पढ़ रहा था ,इसलिए ज्यादा भार रहता नहीं था सबक याद करने का ।पहले ही पन्ने में पन्द्रह दिन गुजर गए फिर कहीं जा कर दूसरे तरफ क्या लिखा है जान पाया । मदरसे से निकलता तो फूफी के लड़के मकसूद खान ,जावेद और बड़े अब्बू के लड़के रिज़वान और छोटी फूफीजान सायरा के साथ संकीर्तन आश्रम जाता ।वहां दस बजे से शाम के चार बजे तक संस्कृत /हिंदी की पढ़ाई होती,पर हम चारों को शुरू के तीन घंटे की इजाज़त मिली थी जिसमे हिंदी और थोड़ी बहुत संस्कृत पढ़ा देते थे ।मदरसे से हिसाब (गणित) और टूटी फूटी अंग्रेजी के साथ अरबी (बिना समझ वाली) उर्दू  को समेटे हुए ,एक साथ से खिसकते पैजामे को संभाले तो दूजे हाथ की आस्तीन  से आँखों से बहते आँसू को पोछते हुए बस आस पास के लोगों से यही इल्तिजा करता की हाय कोई तो रोक लो इस अत्याचार को । खैर पाठशाला में घुसने से पहले सर से जालीदार टोपी जेब में रखने की हिदायत मकसूद भाई देते और कहते की टिफिन में कबाब या कीमा हो तो दुपहर के खाने में ढक्कन न खोलना ,यहाँ खाना मना है । हम सब भीतर जाते आंवले के पेड़ के तले ‘स्वच्छ जल’ की टंकी से प्यास बुझाते फिर खुले से चटियल मैदान में बिछी टाट पट्टी पर बैठ जाते । सबसे पहले प्रार्थना होती ,हिन्दू बच्चे हाथ जोड़ते और हम सब हाथ बाँध के खड़े रहते ,सब जोर जोर से दोहराते ।और हमें कहा गया की बस होंठ हिलाना ,बुदबुदाना ,ऐसा लगे की तुम भी वही दोहरा रहे हो ।मकसूद भाई ने कहा था की अल्लाह मियाँ नाराज़ होंगे अगर इन हिन्दुओं की तरह कुछ बोले तो इसलिए उन्होंने हमे सिखाया था ‘अल्लाह तू माफ़ करने वाला है ,इन न समझों को माफ़ कर ,ये तेरी इबादत नहीं किसी और की करते हैं ,और हमें तालीमयाफ्ता बना दे’.। एक बार धीरे धीरे बोलने के चक्कर में मेरे मुंह से ये सब जोर जोर से निकल गया,था तो मैं बच्चा ।मैं  कोई मकसूद भाई थोड़ी ना था की जानू अल्लाह कैसे नाराज़ होते हैं और भगवान कैसे प्रसन्न  ।आस पास के त्रिपाठी ,तिवारी ,निषाद के बच्चे वैसे ही खार खाए बैठे थे ।मेरे मुंह से अल्लाह माफ़ करे सुन कर गुरु जी से शिकायत कर बैठे । पढ़ाते तो कई सारे लोग थे पर गंगाधर मिसिर उन सबमे बड़े अच्छे थे ,उन्हें उर्दू भी आती थी ।खुशकिस्मती ये की हमारी अल्लाह को याद करने और हिन्दुओं को माफ़ करने वाली शिकायत उन्ही के यहाँ दर्ज होती है ।वे मुस्कुराते हैं और कहते हैं कोई बात नहीं ,इस प्रार्थना में जो अनस करता है उसमे बुराई ही क्या है ।जैसे हम सब अपने अपने पापों की क्षमाप्रार्थना मांगते हैं भगवान से वैसे अनस अपने साथ ही साथ तुम सबकी गलतियों की माफ़ी मांगता है । आचार्य जी द्वारा मेरी दुआ की इस व्याख्या ने ,मेरे बाल मन पर गहरा असर डाला । जिस दुआ को करने के लिए बड़े भाई ने मुझे जासूसों की तरह बना दिया था उसको इतना सहज और सरल तरीके से लेने के कारण आगे से मकसूद भाई की बातों को मैं एक कान से सुनता दूसरे से निकाल देता । उस दिन से मदरसे से फटाफट निकल आश्रम जाने की व्याकुलता में अरबी, उर्दू , हिसाब और अंग्रेजी के सबक मुझे तेजी याद होने लगे । इस तरक्की से मौलाना साब को भी कोफ़्त होती की ये लौंडा बिना मार खाए आखिर कैसे रट लेता है सब कुछ । और इसी उधेड़बन में उनका तगड़ा वाला हाथ बेवजह मेरे ऊपर उठने लगा ,कमर लाल हो जाती ,मैं बिलबिला के चीख उठता ।लेकिन वे उम्र और ताकत दोनों में दस गुना थे और मैं बेचारा । फर्जी की तुड़ाई करने की आदत उस मोटे बिहारी मौलाना में थी ,लुंगी और कुर्ता में कल्लन चिकवा से कहीं कम नहीं बैठता था । इस बीच मेरा मन मदरसे से दूर भागने लगा ।मेरा भी मन फरारी काटने का होता और गंगा किनारे बैठ नदी निहारने का ,पर घर से पढ़ने वाले और भी थे जो ‘घर का भेदी लंका ढाए’ थे । ऐसे में मैंने हिम्मत कि की अब बस बहुत हुआ ,पानी पीने के बहाने जाता तो अगली घंटी के बाद आता ।इस ख्याल से खुश हो जाता की आज मार नहीं पड़ेगी । रोज़ रोज़ मार खाने से बेहतर एक दिन नागा करके मार खाऊं । अगले में मौलाना इदरीस आते थे जो अंग्रेजी और हिसाब पढ़ाते ,वे किसी को एक थप्पड़ नहीं मारते बस डराते और कहते ‘इतना मारूंगा की मर जाओगे ‘ और मर जाने से हम सब डरते थे । फिर लुका छिपी का खेल यूँही चलता रहा इदरीस साहब की मुहब्बत से मैं जमा रहता मदरसे में और उन मौलाना साब की मार पीट के बावजूद उर्दू और अरबी की तालीम हासिल करता रहा ,खैर दो साल तक प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद फिर से उसी मांटेसरी स्कूल में दाखिला हुआ ,अब वहां मन लगने लगा था क्योकि मिस तबस्सुम पे मेरा दिल आ गया था ।

बाग़ के आधे हिस्से में हाइवे समा गया.

कल शाम दफ्तर से निकल कर घर की तरफ जा रहा था. केन्द्रीय सचिवालय से येलो लाइन मेट्रो पर सवार हुआ. पिछले तीन महीने से इस लाइन पर आता और जाता हूं.शायद गिनती के तीन या चार मौके मिले हैं जब मुझे बिना खड़े हुए यात्रा नसीब हुई हो. मेट्रो में सब लोग जल्दी में रहते हैं. कुछ लोग भागते हुए भीतर घुसते हैं तो कुछ लोग उसी तेजी से बाहर। फ्रिस्किंग के दौरान वर्दी वाले भाई साहब भी बहुत जल्दी में होते हैं. वे एक बार कमर के ऊपर तेजी से डिटेक्टर यंत्र को गुजारते हैं. नीचे नहीं जाते। उन्हें पता है की नीचे कुछ नहीं होगा। शायद ही कभी मेरे जूते या पैरों पर से हो कर उनकी हाथ मशीन गुजरी हो. सब लोग बहुत फटाफट वाले अंदाज़ में काम करते हैं. कोई रुकना चाहे तो मेट्रो उसे रुकने नहीं देती। भागना इसकी नियति बन चुकी है. हम भी खुद को उसी के हिसाब से ढाल लेते हैं.

इलाहाबाद में मेरा ननिहाल फूलपुर के फिरोजपुर भरारी गाँव में है. तांगा चलता था. हनुमानगंज से फिरोजपुर के बीच नौ किलोमीटर की दूरी एक घंटे में तय होती थी. घर में पुरानी ओमनी कार थी. 1997 तक झूंसी गाँव के कुछ गुप्ता और अग्रवाल परिवारों में चार पहिया थी. मैं तो हमेशा अकेले ही नानी के घर चला जाता था. दूर तक फैले खेत और बसंत में पेड़ से टूट कर गिरे पत्तों पर दौड़ना दुनिया का सबसे अच्छा काम लगता था. नानी के बाग़ की रखवाली सोहन यादव किया करते थे. उनका घर भी बाग़ के बगल में था.सोहन और सोहन के जैसे बाकी लोग गाँव से बाहर नहीं जाते थे. मैं उनसे पूछता की आप यहाँ रहते हो ,बस कच्चे मकान और खेत हैं. मन कैसे लगता है. क्योंकि मैं वहां हमेशा के लिए रहने नहीं जाता था बस एक दो दिन ही रहता था. बहुत से सवाल मेरे मन में उठते और उनका जवाब सोहन से लेकर गाँव के प्रधान तक के पास न होता।
इक्का की सवारी ही नानी के घर तक पहुंचने का साधन थी. हनुमानगंज में मिनी बस का स्टापेज था. झूंसी से बैठता और वहां उतर जाता। स्टाप पर हलवाई की दूकान थी ,वह दूकान झूंसी के पिंटू केसरवानी के बड़े भाई की थी. पिंटू मेरा दोस्त था. थोड़ी देर वहां रुकता था,पिंटू बिना पैसे के कलाकंद खिलाता। समोसा भी. मैं उसको अपने रुतबे के मकड़जाल में फंसा कर बड़ी बड़ी बाते बताता। पिंटू को मेरे रहते कोई दिक्कत नहीं होनी थी ,उसे ऐसा यकीन दिलाता। यारी दोस्ती और ठेकेदारी की बाते निपटा कर तांगा पकड़ता। घोड़े के ठीक पीछे बैठता ,जहां घोड़े वाला नायलान की पतली रस्सी नुमा डंडे से घोड़े के कमर पर चटका लगाता. घोड़ा रफ़्तार पकड़ लेता। लेकिन घोड़ा अगल बगल से गुजरने वाली साइकिल और जीप से आगे न भाग पाता। पता नहीं उस घोड़े की रफ़्तार ही इतनी थी या फिर घोड़े पर बैठे लोगों को जल्दबाजी नहीं थी. पहुंचना सभी चाहते थे ,और पहुँचते भी थे. घोड़े वाले। ट्रैक्टर वाले।  साइकिल वाले।
नानी के घर में मोहन रहता था. वह गाय भैंस वगैरह के चारे का इंतजाम करता था. इस दुनिया में उसका कोई नहीं था. सिवाए मेरे ननिहाल वालों के. दो तीन साल रहने के बाद वह मुसलमान हो जाता है. अब जब वह मुसलमान बन गया तो उसका नाम अब्दुल रखा जाता है. अब्दुल की चाहत थी की उसे हाफ़िज़ बनना है और मस्जिद में इमामत करनी है. उसकी यह बात मान ली जाती है. इलाहाबाद में ही एक जगह है उतरांव,वहां एक बड़ा मदरसा है. उसे वहीँ भेजा जाता है. पढ़ने के बाद वह वापस आ जाता है और मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने लगता है. अब उसे भैंस गाय को चारा देने की ज़रुरत नहीं पड़ती। लेकिन जब तक वह मोहन था तब तक वह मुझे खेत से मटर तोड़ कर देता था. मीठी मटर मुझे पसंद थी. खेत में पुवाल जलाता और उसमे मटर डाल कर भूनता भी था. आलू भी पकाता था और आम भी उसी आग में. वो इमाम बन गया तो मुझे ये सब काम खुद से करने पड़ते थे.
कई सारे लोग थे उस समय जिनकी जिंदगी ,मेरे हिस्से में शामिल थी. सोहन ,पिंटू ,मोहन ,तांगे वाला। समय आगे बढ़ता गया. ये सब दूर चले गए या मैं इनके पास नहीं रहा. बाग़ के आधे हिस्से में हाइवे समा गया तो बाकी का एक हिस्सा हाइवे के उस पार चला गया. इस बार गया था तो सोलह पहिए के ट्रकों ने वहां भी पीछा किया जहाँ बसंत में सिर्फ पत्तों की सरसराहट सुनाई देती थी अब वहां खरगोश और सियार की आवाज़ तक नहीं आती. सब तेजी से बदल गया.
फिर आऊंगा किसी रोज़ तांगे पर सवार हो कर ताकि अपना बीता हुआ कल याद करके कुछ कतरा आंसू टपका सकूं वहां जहाँ सुराही से पानी निकालते वक्त जान बूझ कर पानी छलका देता था.